साम, दाम और दंड में फंसा लोकतंत्र?

 

कर्नाटक से निकले संदेश ने पूरी राजनीति को बदबूदार बना दिया है। राज्यपाल के विवेक का विशेषाधिकार भी मजाक बन गया। सियासत और सत्ता के इस जय पराजय के खेल में कौन जीता और कौन पराजित हुआ यह सवाल तो अंतिम सीढ़ी का है। यह राजनीतिक दलों और उनके अधिनायकों के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है लेकिन संवैधानिक संस्थाओं की तंदुरुस्ती के लिए कभी भी सकारात्मक नहीं कहा जा सकता है। यह राजनीतिक संस्थाओं के लिए भी सबक है जो सत्ता और सिंहासन विस्तार की नीति में विश्वास रखते हैं, उनके लिए जिनके लिए सिंहासन ही सब कुछ है। राजनीति के केंद्र में लोकहित कभी भी प्रमुख मसला नहीं होता। वह साम्राज्य विस्तार में अधिक विश्वास रखती है। एकाधिकार शासन प्रणाली में यह बात आम है, लेकिन दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में ऐसा कम होता है। अब लोकतंत्र की छांव में भी सामंतवाद की बेल पल्लवित हो रही है। सत्ता के केंद्रिय बिंदु में संविधान नहीं साम, दाम, दंड और भेद की नीति अहम हो चली है। सत्ता के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं को फुटबाल नहीं बनाया जा सकता। लोकतांत्रिक व्यवस्था का हर स्थिति में अनुपालन होना चाहिए। यहां सवाल कांग्रेस की नैतिक जीत और भाजपा की पराजय का नहीं है। प्रश्न संवैधानिक अधिकारों का है, जिनकी तरफ देखा तक नहीं जाता और दलीय प्रतिबद्धता की अंधभक्ति में आंख बंद कर फैसले लिये जाते हैं।
भाजपा और कांग्रेस के सत्ता और सिंहासन के इस युद्ध में लोकतंत्र बेनकाब हुआ है। राज्यपाल नामक जैसी संवैधानिक संस्था बेनकाब हुई है। हालांकि यह कोई पहली बार नहीं हुआ है यह देश के राजनीतिक इतिहास की परंपरा रही है। कांग्रेस की उसकी गंदी सोच का भाजपा आज अनुसरण कर रही है। हमारे राजनीतिक दलों की स्थिति लोकतांत्रिक फैसलों को पचाने की नहीं है। राजनीति सत्ता के लिए किस हद तक गिर सकती है, जैसा कि कर्नाटक में गिरी और पूर्व में गिरती आ रही है। भाजपा एक और राज्य कर्नाटक पर विजय प्राप्त कर जहां कांग्रेस मुक्त भारत के अपने मिशन को सफल करना चाहती थी, वहीं कांग्रेस गोवा, मणिपुर और मेघालय में सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद मोदी और शाह के हाथों मिली पराजय का बदला चुकाना चाहती थी। राजनीति में यह प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए लेकिन वह पूरी तरह दलीय प्रतिबद्धता से परे और स्वस्थ हो। जब जिम्मेदार संस्थाएं अपने संवैधानिक अधिकारों का त्याज्य कर किसी विशेष संदर्भ में उसका प्रयोग करने लगें तो यह उचित नहीं है।
कर्नाटक फसाद की मूल वजह कांग्रेस और भाजपा की दुराग्रह से ग्रसित राजनीति है। भाजपा के थिंक टैंक अल्पमत में भी कर्नाटक में सरकार बना पूर्व की पुनरावृत्ति करना चाहते थे और एक अलग तरह का संदेश देना चाहते थे। अमितशाह कर्नाटक मिशन को सफल कर देश की जनता को यह भरोसा दिलाने की कोशिश में थे कि 2019 के असली दावेदार वहीं हैं। अमितशाह अपने राजनैतिक कौशल का झंडा गाड़ यह संदेश देना चाहते थे कि हम अल्पमत में हों या बहुमत में, सरकार तो हमीं बनाएंगे। कांग्रेस हमारी रणनीति और चुनावी मैनेजमेंट के सामने कहीं नहीं टिकती है लेकिन उनकी सारी रणनीति धरी की धरी रह गयी। अधिक से अधिक कीचड़ में कमल खिलाने की उनकी सोच बेकार गयी। ं 2019 के लिए लोगों में जो एक सोच पैदा करना चाहते थे उसकी बखिया उधड़ गयी। भाजपा अपने ही बुने जाल में बुरी तरफ उलझ गयी। वह अपने सियासी तीर से संवैधानिक पीठों को भी बौना साबित करना चाहती थी, लेकिन यह उसका दिवा स्वप्न निकला। भाजपा के चाणक्य मोटू भाई इस बार कांग्रेस के चक्रव्यूह में फंस गए। कामदार पर नामदार और पप्पू की नीति भारी पड़ी।
पूरे घटनाक्रम में सबसे अहम सवाल है कि जब कांग्रेस ने राज्यपाल वाजूभाई वाला को जेडीएस और कांग्रेस के 117 विधायकों की सूची सौंप दी फिर उसे सरकार बनाने के लिए क्यों नहीं आमंत्रित किया गया। कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल को मिलने तक का वक्त नहीं दिया गया, जबकि येदियुरप्पा के लिए राजभवन के दरवाजे खुले रहे। जब कांग्रेस और जेडीएस के पास सरकार चलाने के लिए आधे से ज्यादा बहुमत था, फिर भाजपा को क्यों आमंत्रित किया गया। भाजपा के चाणक्य ने आखिर येदियुरप्पा की जगहंसाई क्यों कराई। ढाई दिन का मुख्यमंत्री बनने को क्यों मजबूर किया। संविधान क्या कहता है, वह बहुमत की बात करता है या फिर सबसे बड़े दल की। अगर बहुमत की बात थी तो फिर महामहिम राज्यपाल को विवेक का इस्तेमाल करने की क्या जरुरत थी। राज्यपाल एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है, उसका किसी दल से ताल्लुकात या उसके प्रति झुकाव अलोकतांत्रिक और घातक है। अगर नियम सबसे बड़े दल का है तो फिर गोवा, मणिपुर और मेघालय में भाजपा और दूसरे गठबंधित दलों को क्यों आमंत्रित किया गया। निश्चित तौर यह संवैधानिक असमंजस की स्थिति है।
राज्यपाल जैसे प्रमुख संवैधानिक पदों पर राजनैतिक दलों से नियुक्तियों की व्यवस्था बंद होनी चाहिए। प्रमुख सचिवों की तरह यहां भी प्रशासनिक अफसरों की नियुक्ति होनी चाहिए या फिर राज्यपाल के लिए भी राष्ट्रपति जैसी चुनावी व्यवस्था अमल में लायी जानी चाहिए। संविधान में राज्यपालों के विवेकाधिकार खत्म होना चाहिए। विवकेका अधिकार ही राजनीतिक और दलीय स्वामिभक्ति को बढ़ा रहा है क्योंकि राज्यपाल दलीय प्रतिबद्धता से उबर नहीं पाते जिसकी वजह है लोकतंत्र बेशर्म होता है और कर्नाटक जैसी घटना हमारे सामने होती है। लोकतंत्र के साथ भद्दा मजाक बंद होना चाहिए। सबसे अधिक मतपाने वाले दल को सत्ता सौंपी जानी चाहिए या फिर बहुमत की अंकीय गणित पर विराम लगना चाहिए। सबसे बड़े राजनीतिक दल को सरकार चलाने का मौका मिलना चाहिए। दलबदल कानून पूरी प्रतिबद्धता के साथ लागू होना चाहिए। क्योंकि आम तौर यह होता है कि जोड़-तोड़ से सरकार बना ली जाती है। दूसरे दल से टूटे विधायक सरकार में शामिल हो सत्ता आनंद भोगते हैं जबकि उस पर फैसला बेहद बिलंब से आता है जिसकी वजह से दल बदल कानून भी बेमतलब साबित होता है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर लोकतंत्र को सूली पर चढ़ाने वाली इस व्यवस्था पर विराम लगना चाहिए। संविधान संशोधन के जरिए यह व्यवस्था होनी चाहिए कि चुनाव के बाद कोई भी सदस्य अपने मूल दल से साल भर बाद पाला बदल सकता है। कर्नाटक विश्वासमत में यह बात भी सामने आयी कि अगर कोई भी कांग्रेस या जेडीएस का विधायक भाजपा के पक्ष में मतदान करता तो उसकी सदस्यता खत्म नहीं होती। इस तरह के लचीने कानून कहीं न कहीं से रिसोर्ट और हार्स ट्रेडिंग संस्कृति को बढ़ावा देते हैं, इस तरह की छूट पर लगाम लगनी चाहिए।
कांग्रेस अगर समय रहते सुप्रीमकोर्ट का दरवाजा न खटखटाती तो येदियुरप्पा और भाजपा को बहुमत सिद्ध करने से कोई नहीं रोक सकता था क्योंकि राज्यपाल की तरफ से पूरे 15 दिन का वक्त दिया गया था। उस स्थिति में सब कुछ सामान्य होता और भाजपा आराम से बहुमत साबित कर लेती। इसी रणनीति के तहत भाजपा ने येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई थी। यह अमितशाह की सोची समझी रणनीति थी, लेकिन कांग्रेस की सक्रियता से वह काम नहीं आयी और भाजपा को मात खानी पड़ी। देश की सर्वोच्च अदालत के हस्तक्षेप की वजह से यह संभव हुआ। क्योंकि भाजपा को अपनी गोंट विठाने का पूरा वक्त नहीं मिल पाया, जिसकी वजह से लोकतंत्र की गला घोंटने की एक कोशिश नाकाम हो गयी। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सेहत दुरुस्त रखने के लिए राजनीतिक दलों को सत्ता और सिंहासन की राजनीति से अलग हटना होगा।
हालांकि इस गलत व्यवस्था के लिए सिर्फ भाजपा को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। इसकी पूरी जवाबदेही और नैतिक जिम्मेदारी कांग्रेस की है। पूर्व में कर्नाटक, झारखंड, बिहार, जम्मू-कश्मीर, आंध्रप्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य इस गलत परंपरा के उदाहरण हैं। राज्यपाल जैसी संस्था का दुरुपयोग कांग्रेस की परंपरा रही है। एक-दो नहीं दर्जनों उदाहरणों से भारतीय लोकतंत्र का इतिहास रंगा पड़ा है। लोकतंत्र के लिए आज जो सबसे घातक नीति साबित हो रही है उसका बीज कांग्रेस ने ही कभी बोया जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उसकी तूती बोलती थी। यह कहावत उस पर फिट बैठती है कि जब बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय। कर्नाटक, गोवा, मणिपुर और मेघालय पर उसे घड़ियाली आंसू बहाने की आवश्यकता नहीं है। संवैधानिक कीचड़ तो कांग्रेस का ही फैलाया है अब वह रायता बन फैल रहा है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *