रामजी के वनवास का समय कब होगा पूरा
लम्बे समय से चलते आ रहे आन्दोलनों, राजनीतिक अटकलों तथा नेताओं के परस्पर-विरोधी बयानों और न्यायालय की अटकलबाजियों के बीच अयोध्या में रामजन्मभूमि पर मन्दिर निर्माण का मामला लटका ही हुआ है। लोगबाग अब यह मानने लगे हैं कि इसी मुद्दे को ले कर अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर चुनाव लड़ते रहने वाली जिस भाजपा को रामजी पूरे भारत का राज-पाट दिला दिए, उसकी सरकार अयोध्या में राम-मन्दिर का निर्माण कराने के प्रति उदासीन है। रामजी के सहारे भाजपा तो सत्तासीन हो गई, किन्तु रामजी अब तक बेघर ही हैं, मानो उनके वनवास की अवधि इस कलयुग में बढ़ती ही जा रही है। सच भी यही है, किन्तु यह सच वास्तव में द्विअर्थी और द्विआयामी व दूरगामी है। इसका एक अर्थ और एक आयाम तो यही है, जो आम तौर पर सबको दृष्टिगोचर हो रहा है; किन्तु इसका दूसरा अर्थ और दूसरा आयाम बहुत गहरा व बहुत व्यापक है, जिसे राजनीति की दूरदृष्टि से सम्पन्न कम ही लोग समझ रहे हैं। ऐसे दूरदृष्टि-सम्पन्न लोगों में कदाचित राम को ले कर राजनीति की दिशाधारा बदल देने वाले निष्णात राजनीतिज्ञ लालकृष्ण आडवाणी एवं राम-मन्दिर-विरोधियों को धूल चटा कर सत्तासीन हो जाने वाले नरेन्द्र मोदी भी हों, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। तो अब आते हैं इस मामले के उस अदृश्य सच और अदृश्य आयाम पर, जिसे कदाचित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-परिवार का वह शीर्ष-नेतृत्व भी समझ रहा है, जिसने इस मुद्दे को वैचारिक पोषण देते रहने और जन-मानस को समय-समय पर आन्दोलित करते रहने का काम किया है। इस वर्तमान कलयुग में राम अयोध्या से बेघर हैं, अर्थात् वनवास में हैं और वनवास की अवधि बढ़ती जा रही है। यह एक दृश्य तथ्य है। जबकि, अदृश्य तथ्य यह है कि वनवास में ही राम का अटूट संकल्प और प्रचण्ड पुरुषार्थ प्रकट होता है, जिसकी पराकाष्ठा असुरों के संहार से प्रदर्शित होती हुई रामराज्य की स्थापना में परिवर्तित होती है। वनवास के दौरान ही राम ने भारतीय सनातन धर्म-संस्कृति पर अभारतीय अधार्मिक या यों कहिए धर्मनिरपेक्ष आसुरी सत्ता के आतंक से पीड़ित मुनि-समाज के बीच अस्थियों के ढेर देख कर और सरभंग ऋषि के आत्मदाह से द्रवित हो कर धरती को निशिचरहीन करने का संकल्प लिया था, जिसे तुलसीदास ने इन शब्दों में उकेरा है- ”निशिचरहीन करउं महि, भुज उठाई प्रण कन्हि; सकल मुनिन्ह के आश्रमहीं जाई-जाई सुख दिन्ह।” आगे की पूरी रामकहानी धरती को निशिचरहीन अर्थात् असुरविहीन करने की रामनीतिक-राजनीतिक-रणनीतिक-दैविक गाथाओं की परिणति है। आसुरी शक्तियों के संहार के दौरान राम द्वारा अपनायी गई रणनीति के तहत पहले सुग्रीव का और फिर बाद में विभीषण का राज्यारोहण होता है। अन्ततः असुराधिपति रावण की सम्पूर्ण पराजय के बाद ही अयोध्या लौटने पर राम राज्यारुढ़ होते हैं। त्रेता युग के उस पूरे आख्यान का सूक्ष्मता से अवलोकन करें तो आप पाएंगे कि राम के वनगमन और सीता के अपहरण की घटना वास्तव में असुरों के उन्मूलन की पूर्व-पीठिका थी, जो सुनियोजित ही नहीं, किसी न किसी रूप में प्रायोजित भी थी। भूतकाल की किसी भी घटना का फल भविष्य में ही फलित होता है, अर्थात् भविष्य की चाबी इतिहास के गर्भ में सुरक्षित होती है। यह तथ्य सदैव सत्य प्रमाणित होता रहा है। त्रेता युग में भी और इस कलयुग में भी।