यहां जिंदगी खत्म होने के बाद भी रहती है जिंदा…
देहरादून : विज्ञान भले ही पुनर्जन्म को संशय की नजर से देखे, लेकिन देहरादून के शुक्लापुर क्षेत्र के लोगों की इसमें अटूट आस्था है। इसके लिए उन्होंने आधार तलाशा पौधों में। मृत्यु के बाद पौधे के रूप में जीवन को सहेजने की यह विधा अनूठी है। प्रियजन के परलोक सिधारने पर अंतिम संस्कार के बाद परिजन श्मशान घाट में एक पौधा रोपते हैं और चिता की राख वहीं डाली जाती है। इन पौधों में लोग अपने प्रिय का अक्स देखते हुए उसकी देखभाल करते हैं। दिसंबर 2012 में शुरू हुई परंपरा के फलस्वरूप अब तक 53 लोग पेड़ों के तौर पर पुनर्जन्म के रूप में यहां मौजूद हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिए वर्षों से काम कर रहे पद्मश्री डॉ. अनिल प्रकाश जोशी की इस अनूठी पहल का दायरा उत्तराखंड की सीमाओं से बाहर निकलकर बढ़ता जा रहा है।
देहरादून से महज 16 किलोमीटर के फासले पर है शुक्लापुर। इस गांव में हेस्को संस्था के मुख्यालय से लगकर बहने वाली छोटी आसन नदी के किनारे है शमशान घाट। इसका नाम दिया गया है ‘पुनर्जन्म’। यहां दर्शन होते हैं मृत्युलोक के फलसफों यानी चिंता, चिंतन, चैतन्य व चिता के। शुक्लापुर के साथ ही अंबीवाला क्षेत्र के लोग किसी की मृत्यु होने पर यहीं अंतिम संस्कार करते हैं। दिसंबर 2012 में यहां प्रारंभ की गई पौधों के रूप में पुनर्जन्म की परंपरा। सबसे पहले वहां पिता की याद में पौधा रोपा शुक्लापुर निवासी राकेश सेमवाल ने।
राकेश बताते हैं कि 23 दिसंबर 2012 को उन्होंने अपने पिता की याद में यहां आंवले का पौधा लगाया। वह और उनके परिवारजन अक्सर यहां आते हैं। वह कहते हैं, इस पौधे के पास आकर उन्हें लगता है जैसे पिता उनके पिता उनके पास है। पौधे की देखभाल उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। यही नहीं, बहनें और परिवार के अन्य लोग भी यहां आकर आशीर्वाद लेते हैं। यह अकेले राकेश की ही नहीं बल्कि शुक्लापुर और अंबीवाला गांव के कई परिवारों की कहानी है।
हिमालयी पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संस्था (हेस्को) के संस्थापक पद्मश्री डॉ. अनिल प्रकाश जोशी को एक दिन अचानक इस नायाब पहल का विचार आया था। डॉ. जोशी तीन दशक से हिमालयी क्षेत्रों में पर्यावरण संरक्षण की अलख जगा रहे हैं। उनके मुताबिक पर्यावरण को जब तक आमजन से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक पर्यावरण संरक्षण की कोई भी कवायद बेमानी हैं। वह कहते हैं, बलवती भावनाएं स्थिर परंपराओं को जन्म देती हैं और हमेशा के लिए बिछुड़ चुके प्रियजनों को ‘जीवित’ रखने का इससे बेहतर तरीका क्या होगा कि वे पौधों के रूप में जीवित रहें।
डॉ. जोशी इस पहल को न सिर्फ राज्य, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी फैलाने को प्रयासरत हैं। वह बताते हैं कि गढ़वाल एवं कुमाऊं के कई क्षेत्रों में लोग इस पहल को अपना रहे हैं। यही नहीं, दिल्ली, मुंबई, बिहार समेत कई राज्यों के विभिन्न संगठनों से जुड़े लोगों ने उन्हें फोन कर इस पहल के बारे में जानकारी ली है, ताकि वे भी अपने-अपने यहां लोगों को पर्यावरण से जोड़ने की ऐसी पहल कर सकें।