राहुल को चुनौतियों की पिच पर खेलनी होगी ‘कप्तानी’ पारी

 नई दिल्ली। राहुल गांधी ही कांग्रेस के नए कप्तान होंगे इसमें अब किसी किंतु-परंतु की गुंजाइश नहीं रह गई है। देश की सबसे पुरानी पार्टी के युवा अध्यक्ष के रुप में अगले कुछ दिनों में उनकी औपचारिक ताजपोशी भी हो जाएगी। जाहिर तौर पर नए नेतृत्व से पार्टी को अपने सबसे कठिन समय में उम्मीदें भी कहीं ज्यादा है। कांग्रेस मुख्यालय में नामांकन के बाद कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से असम तक के पार्टी नेताओं ने राहुल के नेतृत्व को लेकर जैसी अपेक्षाओं का इजहार किया उससे साफ है कि कांग्रेस के नए अध्यक्ष को चुनौतियों की दोहरी पिच पर संभलकर कप्तानी करनी होगी। खासकर यह देखते हुए कि राजनीतिक वास्तविकता की मौजूदा कमजोर पिच पर लड़खड़ा रही कांग्रेस को एक संगठित टीम के रुप में एकजुट कर आगे बढ़ने की चुनौती तो राहुल के सामने है। इससे भी दोगुनी बड़ी चुनौती पार्टी के सिमटते राजनीतिक आधार के सिलसिले पर ब्रेक लगाते हुए वापसी का पहाड़ सरीखा लक्ष्य हासिल करना।

कांग्रेस के इतिहास के सबसे बुरे दौर में पार्टी की कमान संभालने जा रहे राहुल के लिए चुनौतियां केवल भाजपा और उसके नेतृत्व से ही नहीं बल्कि जनमानस में पार्टी की प्रासंगिकता बहाल करने की भी है। उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना जैसे बड़े राज्यों में हाशिये पर जा चुकी पार्टी के जनाधार को वापस लाना राहुल के नेतृत्व के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं होंगे। कांग्रेस की प्रासंगिकता और सियासत दोनों को नई राह देने के लिए इस हालात में राहुल को जाहिर तौर पर एक बेहद मजबूत कप्तानी पारी की सियासत करनी होगी। यह कप्तानी पारी खेलना इसलिए भी जरूरी होगा क्योंकि पार्टी के अंदर और बाहर दोनों मोर्चे पर उनके नेतृत्व की परख इसी आधार पर होगी।

राजनीतिक मोर्चे पर मोदी और भाजपा की नई तरह की आक्त्रामक राजनीतिक की चुनौती तो राहुल के सामने होगी ही। साथ ही कांग्रेस के भीतर भी राहुल को कई तरह की चुनौतियों से रूबरू होना पडेगा। इसमें सबसे पहले राहुल को अपने वरिष्ठ नेताओं का भरोसा जीतना होगा। अब से पहले तक कार्यशैली को लेकर कई वरिष्ठ नेताओं के राहुल से असहज होने की बातें किसी से छिपी नहीं है। नामांकन के वक्त पुराने दिग्गजों ने पूरी तादाद में मौजूद रहकर राहुल का नेतृत्व स्वीकार करने का साफ संदेश दिया। इसलिए अब बारी राहुल की होगी कि वे पुराने दिग्गजों के सियासी अनुभवों के सहारे पार्टी को संकट के दौर से निकालने की राह कैसे बनाते हैं।

राहुल की राजनीतिक चुनौतियों का दौर उनके अध्यक्ष बनने के साथ ही शुरू हो गया है। हिमाचल प्रदेश के साथ गुजरात चुनाव के नतीजे उनके नेतृत्व की परीक्षा के लिए पहले सियासी बाउंसर हैं। इन दोनों राज्यों के नतीजे नेता के रुप में उनकी शख्सियत की कठिन परीक्षा है। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से पंजाब के अलावा लगातार हार का सामना कर रही कांग्रेस की किस्मत पलटने के लिए राहुल को गुजरात और हिमाचल से आगे भी कठिन रास्तों से ही गुजरना है। वह भी तब जब उनकी तुलना और मुकाबला सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शख्सियत से करते हुए सियासत की कसौटी पर कसा जाएगा।

सियासत के मौजूदा दौर में जनता के बीच पार्टी के शिखर नेतृत्व की छवि भी बेहद अहम हो गई है। इस कसौटी पर भी उन्हें मोदी की नेतृत्व और शैली को चुनौती देनी होगी।गुजरात और हिमाचल के नतीजे प्रतिकूल रहे तो राहुल की चुनौतियां ज्यादा गहरी होंगी क्योंकि फिर अगले मई में कर्नाटक और 2018 के अंत में राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के चुनाव होने हैं। इन चुनावों के नतीजों से ही काफी कुछ 2019 के लोकसभा चुनाव की सियासी तस्वीर की संभावनाएं तय होंगी। साफ है कि अध्यक्ष की कुर्सी संभालने के बाद प्रयोग के लिए राहुल के पास न ज्यादा गुंजाइश है और न समय। इसी दौरान राहुल को अगले लोकसभा चुनाव के लिए अपने गठबंधन के नए साथी भी तलाशने होंगे तो यूपीए के पुराने सहयोगियों का भरोसा भी जीतना होगा।

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