‘नहीं मांगता’

सबसे बड़ी ताकत हमारा आत्मबल होता है। इसके सहारे हम बड़ी-बड़ी समस्याओं को भी चुटकी बजाते हल कर लेते हैं। सात मई की तारीख हमंमें ऐसे ही महान साहित्यकार रवीन्द्र नाथ टैगोर की याद दिलाती है जिन्होंने अपनी कविताओं से देश प्रेम के साथ व्यक्ति में आत्मबल बढ़ाने का संदेश दिया। उनकी ‘एकला चलो-एकला चलो तो मशहूर कविता है ही, इसके अलावा ‘नहीं मांगता’ कविता में आत्मबल पर विशेष जोर दिया गया है। इस कविता का हिन्दी अनुवाद यहां प्रस्तुत है-
नहीं मांगता, प्रभु विपत्ति से
मुझे बचाओ त्राण करो
विपदा में निर्भीक रहूं मैं
इतना हे भगवान करो
नहीं मांगता दुःख हटाओ
व्यथित हृदय का ताप मिटाओ
दुःखों को मैं आप जीत लूं
ऐसी शक्ति प्रदान करो
नहीं मांगता हूं प्रभु मेरी
जीवन नैया पार करो
पार उतर जाऊँ अपने बल
इतना हे करतार करो
नहीं मांगता हाथ बढ़ाओ
मेरे सिर का बोझ घटाओ
आप बोझ अपना संभाल लूं।
ऐसा बल संचार करो।
ऐसे थे गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर।
गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर एक विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार और दार्शनिक थे। वे अकेले ऐसे भारतीय साहित्यकार हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। वह नोबेल पुरस्कार पाने वाले प्रथम एशियाई और साहित्य में नोबेल पाने वाले पहले गैर यूरोपीय भी थे। वह दुनिया के अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान हैं। भारत का राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’ और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार बाँग्ला’। रविंद्रनाथ टैगोर ने भारतीय सभ्यता की अच्छाइयों को पश्चिम में और वहां की अच्छाइयों को यहाँ पर लाने में प्रभावशाली भूमिका निभाई।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर और माता शारदा देवी थीं। वह अपने माँ-बाप की तेरह जीवित संतानों में सबसे छोटे थे। जब वे छोटे थे तभी उनकी माँ का देहांत हो गया और चूँकि उनके
पिता अक्सर यात्रा पर ही रहते थे इसलिए उनका लालन-पालन नौकरों-चाकरों द्वारा ही किया गया। टैगोर परिवार ‘बंगाल रेनैस्सा’ (नवजागरण) के अग्र-स्थान पर था। वहां पर पत्रिकाओं का प्रकाशन, थिएटर, बंगाली और पश्चिमी संगीत की प्रस्तुति अक्सर होती रहती थी। इस प्रकार उनके घर का माहौल किसी विद्यालय से कम नहीं था। उनके सबसे बड़े भाई द्विजेन्द्रनाथ एक दार्शनिक और कवि थे। उनके एक दूसरे भाई सत्येन्द्रनाथ टैगोर इंडियन सिविल सेवा में शामिल होने वाले पहले भारतीय थे। उनके एक और भाई ज्योतिन्द्रनाथ संगीतकार और नाटककार थे। उनकी बहन स्वर्णकुमारी देवी एक कवयित्री और उपन्यासकार थीं।
औपचारिक शिक्षा उनको इतनी नापसंद थी कि कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में वो सिर्फ एक दिन ही गए। अपने उपनयन संस्कार के बाद रविंद्रनाथ अपने पिता के साथ कई महीनों के भारत भ्रमण पर निकल गए। हिमालय स्थित पर्यटन-स्थल डलहौजी पहुँचने से पहले वह परिवार के जागीर शान्तिनिकेतन और अमृतसर भी गए। डलहौजी में उन्होंने इतिहास, खगोल विज्ञान, आधुनिक विज्ञान,
संस्कृत, जीवनी का अध्ययन किया और कालिदास के कविताओं की विवेचना की। उनके पिता देबेन्द्रनाथ उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे इसलिए उन्होंने रविंद्रनाथ को वर्ष 1878 में इंग्लैंड भेज दिया। उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में लॉ की पढाई के लिए दाखिला लिया पर कुछ समय बाद उन्होंने पढाई छोड़ दी और शेक्सपियर और कुछ दूसरे साहित्यकारों की रचनाओं का स्व-अध्ययन किया। सन 1880 में बिना लॉ की डिग्री के वह बंगाल वापस लौट आये। वर्ष 1883 में उनका विवाह मृणालिनी देवी से हुआ। इंग्लैंड से वापस आने और अपनी शादी के बाद से लेकर सन 1901 तक का
अधिकांश समय रविंद्रनाथ ने सिआल्दा (अब बांग्लादेश में) स्थित अपने परिवार की जागीर में बिताया। वर्ष 1898 में उनके बच्चे और पत्नी भी उनके साथ यहाँ रहने लगे थे। उन्होंने दूर तक फैले अपने जागीर में बहुत भ्रमण किया और ग्रामीण और गरीब लोगों के जीवन को बहुत करीबी से देखा। वर्ष 1891 से लेकर 1895 तक उन्होंने ग्रामीण बंगाल के पृष्ठभूमि पर आधारित कई लघु कथाएँ लिखीं। वर्ष 1901 में रविंद्रनाथ शान्तिनिकेतन चले गए। वह यहाँ एक आश्रम स्थापित करना चाहते थे। यहाँ पर उन्होंने एक स्कूल, पुस्तकालय और पूजा स्थल का निर्माण किया। उन्होंने यहाँ पर बहुत सारे पेड़ लगाये और एक सुन्दर बगीचा भी बनाया। यहीं पर उनकी पत्नी और दो बच्चों की मौत भी हुई। उनके पिता भी सन 1905 में चल बसे।
14 नवम्बर 1913 को रविंद्रनाथ टैगोर को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था स्वीडिश अकैडमी ने उनके कुछ कार्यों के अनुवाद और ‘गीतांजलि’ के आधार पर उन्हें ये पुरस्कार देने का निर्णय लिया था। अंग्रेज सरकार ने उन्हें वर्ष 1915 में नाइटहुड प्रदान किया जिसे रविंद्रनाथ ने 1919 के जलिआंवाला बाग हत्याकांड के बाद छोड़ दिया।
सन 1921 में उन्होंने कृषि अर्थशाष्त्री लियोनार्ड एमहर्स्ट के साथ मिलकर अपने आश्रम के पास ही ‘ग्रामीण पुनर्निर्माण संस्थान’ की स्थापना की। बाद में इसका नाम बदलकर श्रीनिकेतन कर दिया गया। अपने जीवन के अंतिम दशक में टैगोर सामाजिक तौर पर बहुत सक्रिय रहे। इस दौरान उन्होंने लगभग 15 गद्य और पद्य कोष लिखे। उन्होंने इस दौरान लिखे गए साहित्य के माध्यम से मानव जीवन के कई पहलुओं को छुआ। इस दौरान उन्होंने विज्ञानं से सम्बंधित लेख भी लिखे। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम 4 साल पीड़ा और बीमारी में बिताये। वर्ष 1937 के अंत में वो अचेत हो गए और बहुत समय तक इसी अवस्था में रहे। लगभग तीन साल बाद एक बार फिर ऐसा ही हुआ। इस दौरान वह जब कभी भी ठीक होते तो कवितायें लिखते। इस दौरान लिखी गयीं कविताएं उनकी बेहतरीन कविताओं में से एक हैं। लम्बी बीमारी के बाद 7 अगस्त 1941 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

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