शरीर के अलावा भी एक और शरीर है, जो आध्यात्मिक है

कहीं भी जाकर एकांत में साधना करें तो बहुत कम संभव है कि अपने आस-पास अशरीरी आत्मा  का अनुभव हो। लेकिन तीर्थ में साधना करें तो इस तरह का अनुभव होगा। कभी यह अनुभव इतना गहरा होता है कि उस वातावरण में स्वयं की उपस्थिति कम और दूसरे की उपस्थिति ज्घ्यादा लगेगी। यह उपस्थिति तीर्थ की आत्मा तक पहुंचने पर जीवंत हो उठेगी। यात्री की चेतना यदि उन्नत है तो अशरीरीघ् अनुभवघ् उपयोगी होते हैं।दोनों अनुभवों में क्या फर्क है? फर्क अपने अस्तित्व से समझ सकते हैं। जैसे अपना एक रूप है, जो दिखाई देता है, उसे स्थूल शरीर कहते हैं। शरीर के अलावा भी एक और शरीर है, जो आध्यात्मिक है। जिन्हें इस शरीर का अनुभव है, वे अस्तित्व की अतल गहराइयों तक जा सकते हैं।जो आध्यात्मिक जगत को महसूस कर सकतें हैं, वे तीर्थों के मूल अस्तित्व को भी अनुभव कर सकते हैं।घ् तीर्थ का असली अर्थ, जहां वह स्थूल रूप में मौजूद है, वहीं छुपा है। एक बात और इस संबंध में ध्यान दी जानी चाहिए। जब भी कोई व्घ्यक्घ्ति चेतना की उच्चतम अवस्था तक पहुंचता है और संसार से विदा हो जाता है। विदा होते समय वह करुणावश कुछ संकेत छोड़ जाता है। ये संकेत उन लोगों के लिए हैं जो उनके बताए रास्ते पर चलते हैं।साधना के मार्ग पर एक मंजिल पा लेने के बाद उन्हें किसी तरह की सहायता चाहिए तो ये संकेत उन लोगों के लिए काम आते हैं। वे लोग इन संकेतों के आधार पर अपनी मार्गदर्शक सत्ता से संपर्क साधने और आगे का रास्ता जानने के काम आते ये प्रेरक का भी काम करते हैं।तीर्थ उन सिद्ध पुरुषों द्वारा बनाए गए हैं जिनके बताए मार्ग पर कुछ साधक या कल्याणकामी लोग चल रहे हैं। उन्हें जरूरत सकती है कि आगे का रास्घ्ता किसी तरह पता चल सके। उनकी पंरपरा का कोई व्यक्ति बता सके। हो सके तो उस परंपरा के प्रवर्तक पुरुष से ही संपर्क हो जाए। इस तरह के सिद्ध पुरुषों द्वारा जो संपर्क सूत्र या केंद्र छोडे़ गए हैं, तीर्थ उनमें से एक है। तीर्थों में अपने पूर्वपुरुषों से संपर्क के लिए जो सूत्र छोड़े गए हैं, उनसे संपर्क के लिए कई व्यवस्थाएं हैं। मंदिर, मूर्तियां, आश्रम, घाट, मंत्र निर्मित किए। इन सबके अलावा कर्मकांड का एक सुनिश्चित विधान रचा गया। इस विधान का पालन अर्थ जानते हुए विधानपूर्वक किया जाना चाहिए। अभी जो कर्मकाडं किए जाते हैं, वे अक्सर ऊपरी कृत्य ही होते है। उनका अर्थ, रहस्य, महत्व और स्वरूप पर ध्यान कम ही दिया जाता है। नहीं पता हो तोघ् ऐसे कर्मकांड भी निभा लिए जाते हैं जो व्घ्यवस्घ्था में बिलकुल नहीं आते। उन्हें पूरा कर लेने के बाद पता चलता है कि कुछ नहीं हो रहा। कभी कुछ हो भी जाता है और कभी नहीं भी होता, तो बड़ी दुविधा होती है।
लगता है कि सब संयोग है। फिर उस विधान से पीछा भी नहीं छूटता क्योंकि लगता है कि पता नहींघ् कुछ होता ही हो। इस दुविधा में न माया मिलती है न राम। अब तीर्थ को ही घूमने फिरने की जगह तो है नहीं , इसलिए वहां न यात्रा का आनंद आता है न पुण्य परमार्थ का लाभ मिलता है।
महर्षि अथर्वण ने तीर्थों के लिए कुछ सामान्य मर्यादाएं तय की हैं। यद्यपि संप्रदाय और उपासना विधि के अंतर से विभिन्न तीर्थों के अलग अलग नियम अनुशासन भी हैं। ये नियम विशिष्ट स्थितियों के लिए हैं। और विशिष्टताक्रम से उनमें अंतर भी हैं। लेकिन सामान्य नियम अनुशासन भी हैं। महर्षि अथर्वण के अनुसार इऩका हर तीर्थ में पालन किया जाना चाहिए। इन नियमों का पालन करने पर ही तीर्थ के गहन उद्देश्यों की ओर गति होती है। जैसे आप किन्हीं महत्वपूर्ण स्थानों पर जा रहे हों तो एक खास तरह की तैयारी करते हैं। तीर्थों के लिए भी इसी तरह की तैयारी की जाती है। इस तैयारी में इन नियमों में यम नियम की बीस मर्यादाएं शामिल हैं। ये बीस नियम योग के दस व्रतों से अलग हैं। और अपने भीतर सिर्फ तीर्थ के लिए उपयुक्त वातावरण बनाने के लिए अपनाए जाते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *