ग्लोबल वार्मिंग: गंगोत्री ग्लेशियर के पिघलने की दर सबसे तेज

देहरादून : राष्ट्रीय नदी गंगा के उद्गम स्थल गोमुख के आकार में बदलाव आना सामान्य नहीं है, बल्कि इसके पीछे ग्लोबल वार्मिंग का बड़ा हाथ है। तापमान में बढ़ोतरी के चलते न सिर्फ गोमुख की आकृति बदल रही है, बल्कि गंगा नदी के पानी का मुख्य स्रोत गंगोत्री ग्लेशियर तेजी से पीछे खिसक रहा है। यह दर प्रदेश के अन्य ग्लोशियरों के मुकाबले दोगुने से भी अधिक है। अन्य ग्लेशियर जहां सालाना औसतन 10 मीटर की दर से पीछे खिसक रहे हैं, वहीं गंगोत्री ग्लेशियर में यह दर 22 मीटर है।

वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के वरिष्ठ हिमनद विशेषज्ञ (ग्लेशियोलॉजिस्ट) डा. डीपी डोभाल के अध्ययन के अनुसार उत्तराखंड में कुल 968 ग्लेशियर हैं और सभी लगातार पीछे खिसक रहे हैं। इनमें से गंगोत्री ग्लेशियर, केदारनाथ त्रासदी का कारण बने चौराबाड़ी ग्लेशियर समेत डुकरानी व दूनागिरी जैसे प्रमुख ग्लेशियर की लगातार मॉनिटङ्क्षरग भी की जा रही है।

डा. डोभाल के अनुसार अधिक आवाजाही वाले गंगोत्री ग्लेशियर के पीछे खिसकने की रफ्तार 22 मीटर प्रतिवर्ष तक पहुंचना कहीं न कहीं चिंता की बात जरूर है। इसके बाद सबसे अधिक डुकरानी ग्लेशियर 18 मीटर की दर से पीछे खिसक रहा है। चौराबाड़ी में यह दर 09 मीटर तो दूनागिरी ग्लेशियर 13 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पीछे खिसक रहा है।

मोटाई भी हो रही कम

ग्लेशियर न सिर्फ तेजी से पीछे खिसक रहे हैं, बल्कि उनकी सतह की मोटाई भी निरंतर कम हो रही है। वाडिया संस्थान के अध्ययन के अनुसार उत्तराखंड के ग्लेशियरों की सतह 32 से 80 सेंटीमीटर प्रतिवर्ष की दर से कम हो रही है। हिमनद विशेषज्ञ डा. डोभाल के अनुसार ग्लेशियर पीछे खिसकने की रफ्तार जितनी अधिक होगी, उनकी मोटाई भी उसी रफ्तार से घटती चली जाएगी।

इस तरह घट रही सतह (प्रतिवर्ष औसत सेमी में)

गंगोत्री———————80

डुकरानी——————–75

चौराबाड़ी——————-40

दूनागिरी——————-33

ग्लेशियरों का लगातार पीछे खिसकना जलवायु परिवर्तन का है संकेत

निदेशक (वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान) प्रो. एके गुप्ता का कहना है कि ग्लेशियरों का लगातार पीछे खिसकना व सतह की मोटाई में कमी आना जलवायु परिवर्तन का संकेत है। ग्लेशियरों के बनने व पिघलने की रफ्तार को संतुलित बनाने के लिए पर्यावरण संरक्षण की दिशा में हर स्तर पर प्रयास किए जाने की जरूरत है।

 

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