दुर्घटनाग्रस्त राज्य में क्या होगा

मनोज अनुरागी वरिष्ठ पत्रकार
देहरादून। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उत्तराखण्ड एक पहाड़ी राज्य है और यहां पग पग पर संकट हमारा समाना करने के लिए तैयार खड़े हैं। दुर्गम रास्तों पर पैदल चलना भी दुश्वार होता है, ऐसे में बसों और कारों की तो बात ही क्या करें। फिर भी मनुष्य ने दुर्गम से दुर्गम रास्तों को सुगम बना लिया है और उच्च हिमालय तक सड़कों का जाल बिछा दिया गया। सुदूर बुग्यालों तक सड़कें पहुंचने लगी हैं। इस निर्माण ने हिमालय को कितनी छति पहुंचाई इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है, लेकिन आदमी को इससे जो लाभ हुआ, उसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। सुदूर पहाड़ों पर होने वाली कृषि उपजों को सहज ही बाजार तक आने में सहायता मिलने लगी और उनकी रोजी-रोटी का जुगाड़ होने लगा। बीमार को अस्पताल तक पहुंचाना सहज हो गया और अब डोलियों में कई कई दिन की यात्रा नहीं पड़ती है। अब एक ही दिन में मरीज को अस्पताल तक पहुंचाया जा सकता है, यह अलग बात है कि कभी कभी मनुष्य की सुस्त चाल और हीला-हवाली के चलते मरीजों को सही समय पर अस्पताल नहीं पहुंचाया जा सका। लेकिन सुविधा तो हो ही गई है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि पर्वतीय राज्य होने के कारण हमारे रोजगारों का एक बड़ा प्रमुख साधन है पर्यटन, इसके लिए जरूरी है कि पर्यटकों को सहूलियत दी जाय। दुर्गम स्थानों पर पर्यटकों के पहुंचने के लिए रास्तों की आवश्यकता थी और अब वह उपलब्ध हैं। पर्यटन हमारे राज्य की रीढ़ की हड्डी साबति हो सकता है, यदि हम उसे सही से विकसित करें और पर्यटकों को आमंत्रित करें। राज्य के उपलब्ध संसाधन बड़ी तेजी से चुक रहे हैं और नदियां तक सूख रही हैं, ऐसे में राज्य को संबल देने के लिए पर्यटन उद्योग का समुचित विकास करन लेना ही एक मात्र रास्ता है। दुनिया में कई ऐसे देश हैं जिनकी सम्पूर्ण व्यवस्था ही पर्यटन पर आधारित है। हमारे राज्य में संभावनाएं अनन्त हैं, आवश्यकता है उन्हें ठीक से व्यवहार में लाने की है। हमने रास्ते बनाये और उन रास्तों पर अनियंत्रित वाहनों की आवा जाही होने लगी। गांव के लोगों ने गाड़ियां खरीदीं और पहाड़ी रास्तों पर दौड़नी शुरू की दी। पहाड़ के ड्राईवर अनियंत्रित और तेज गाडियां लेकर पहाड़ों पर दौड़े और आये दिन गाडियां गहरी खाईयों में समाती गईं। इन दुर्घटनाओं में हाजारों लोग प्रतिवर्ष मारे जाते हैं और सरकार का काम केवल सान्वना देना और मुआवजा देना रह गया है। सड़क पर चलने के कुछ नियम होते हैं और पहाड़ी रास्तों पर चलने के नियम तो और भी कठोर होते हैं, लेकिन उनका पालन सही से हो रहा है, या नहीं यह देखने वाला कोई नहीं है। पहाड़ के ड्राईवरों ने तो कमोवेश निश्चित ही कर लिया है कि वह नियमों का पालन नहीं करेंगे। निजी बस संचालकों ने भी कसम खा ली है कि वह नियमों का पालन नहीं करेंगे। अभी हाल ही में पौड़ी और उत्तरकाशी में हुए हादसों ने पूरे राज्य को झकझोर कर रख दिया। दोनों ही हादसों ने में गलती बस संचालकों और ड्राईवरों की ही है। यह बात सभी जानते हैं कि बरसात के दिनों में पहाड़ी रास्ते साक्षात महाकाल बन जाते हैं। उस पर भी ड्राईवरों की मनमर्जी और बसों के टायरों का नंगा होना इस बात की तस्दीक करता है कि कुछ भी हो हम सबक नहीं लेंगे। परिवहन विभाग दिखावटी कार्यवाई करता है और दूसरे दिन से ही पुराने ढर्रे पर। जब तक परिवहन नियमों का कडाई से पालन नहीं होगा, तब तक हादसे होते रहेंगे। आज जरूरत है इन हादसों से सबक लेने की, सैकड़ों लोग मर रहे हैं, यह दुखद है और यह सब हो रहा है मानवीय भूलों से। ऐसे हादसों को रोकने के लिए सरकार को कठोर कदम उठाने होंगे। नागरिकों की सुरक्षा सरकार का दायित्व है। जनता से हम उम्मीद नहीं कर पा रहे हैं।

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