भीड़ की हिंसा और सुप्रीम कोर्ट
हमारे देश की सबसे बड़ी अदालत अर्थात सुप्रीम कोर्ट ने गोरक्षा के नाम पर भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा पर सख्त रुख दिखाते हुए राज्य सरकारों से कहा है कि इन्हें रोका जाए।
विधि के अनुसार व्यवस्था चलाने की जिम्मेदारी अदालत की होती है। राष्ट्र पिता महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार
गांधी ने गोरक्षा के नाम पर भीड़ की हिंसा के मामले में अवमानना याचिका दाखिल कर रखी है। यहां पर महत्वपूर्ण भीड़ द्वारा हत्या है। इसीलिए अभी हाल में बच्चा चोरी के शक में कुछ लोगों की हत्या का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा है और यहां भी मुख्य मुद्दा भीड़ ही है। भीड़ आग लगा देती है, सड़कों पर बाधा खड़ी करती है। ट्रेनों का चलना रोक देती है और मार भी डालती है। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना तो बिल्कुल सही है कि किसी को भी कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती लेकिन किसी के अत्याचारों से त्रस्त होकर जन समुदाय भीड़ बनकर अत्याचारी का खात्मा कर देती है अथवा कोई अत्याचारी हाथ में बंदूक लेकर
अंधाधुंध गोली चला रहा है तो उसे क्या रोकने की कोशिश नहीं होनी चाहिए और उस कोशिश को कोई एक नहीं कर सकता, संगठन भी नहीं तो उसे भीड़ ही कहा जाएगा। भीड़ की इस हिंसा को अपराध ही कहा जाएगा। उस समय सवाल उठता है कि भीड़ ने यह अपराध क्यों किया? अत्याचार करने वाले को शासन और प्रशासन ने रोका होता तो प्रतिशोध के लिए भीड़ क्यों इकट्ठी होती। सुप्रीम कोर्ट ने इसीलिए राज्य सरकारों पर इसे रोकने की जिम्मेदारी सौंपी है, सिर्फ भीड़ ही इसके लिये जिम्मेदार नहीं है बल्कि शासन-प्रशासन की भी यह विफलता है।
ताजा मामला गोरक्षा के नाम पर भीड़ द्वारा हिंसा करने का है। श्री तुषार गांधी ने अवमानना याचिका दाखिल की है। उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की सरकारों को अवमानना नोटिस दिया है। सन् 2018 के 6 महीने में गोरक्षा के नाम पर 66 हिंसा की घटनाएं हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितम्बर 2017 को ही कहा था कि ऐसी घटनाओं पर रोक के लिए हर जिले में नोडल अफसर बनाए जाएं। इसके बाद भी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में गोरक्षा के नाम पर हिंसा हो रही है। यह महज संयोग नहीं है कि इन तीनों राज्यों में भाजपा की सरकार है बल्कि इससे उन निराधार आरोपों की भी पुष्टि होती है जो भाजपा पर लगाये जाते हैं। इसलिए सिर्फ उन्मादी लोगों को ही कठघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता बल्कि सरकार को भी जवाब देना पड़ेगा कि उसने भीड़ को उत्साहित करने में क्या किसी प्रकार की प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष भूमिका तो नहीं निभाई है। मसलन सरकार चलाने वालों ने क्या इस प्रकार के बयान तो नहीं दिये हैं जिससे लोगों में निराधार उन्माद पैदा हो गया। सरकार का दायित्व तो उस समय भी भीड़ को नियंत्रित रखने और मर्यादित रखने का होता है जब कोई ऐसा कृत्य सचमुच हो जाए, जिस पर लोग उत्तेजित होकर हिंसा कर सकते हैं।
हम अपनी बात को कुछ और साफ कर दें। सड़क पर कोई बंदर मरा पड़ा हो, शरीर पर उसके जख्म भी दिखाई पड़ रहे हों और आसपास किसी अल्पसंख्यक का मकान भी हो तो सहज ही कानाफूसी शुरू हो जाएगी। गोरक्षा का मामला चल रहा है तो गोवंश को लेकर भी इसी तरह की परिस्थितियां बन सकती हैं। ऐसे में सच्चाई को सामने लाना सरकार का कर्तव्य है। जनता पर इसे छोड़ दिया गया तो अराजक तत्व हिंसक माहौल बनाने में कोई कसर नहीं रखेंगे। शासन-प्रशासन की लापरवाही से ही गुजरात के ऊना में दलितों पर अत्याचार हुआ जो मृत गाय का चमड़ा निकाल रहे थे। इसके बाद वहां दलितों ने इस कार्य को ही बंद कर दिया है और पशुपालकों को परेशानी का सामना करना पड़ता है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र, न्यायाधीश, एएम खान वलकर और न्यायमूति डीवाई चन्द्र चूड़़ की पीठ ने कहा है कि यह कानून-व्यवस्था का मामला है और भीड़ की हिंसा को रोकना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है।भीड़ सिर्फ गोवंश के मामले में ही हिंसक नहीं हो रही है बल्कि वह बहाने ढूंढा करती है। इसमें सबसे ज्यादा मदद अफवाहें करती हैं। बच्चा चोरी और डायन जैसी बातों को इतना बढ़़ा-चढ़ाकर कहा जाता है कि कई बार निर्दोषों की जान चली जाती है। सुप्रीम कोर्ट बच्चा चोरी के मामले में भी भीड़ की हिंसा पर सुनवाई कर रहा है। बच्चा चोरी के शक में और टोना-टोटका करने वाली कथित डायन के नाम पर भी दर्जनों लोगों की जान ले ली गयी। इनमें भी ज्यादा संख्या महिलाओं की है। ताजा मामला महाराष्ट्र का है। डायन के नाम पर महिलाओं की हत्या करने के ज्यादा मामले बिहार में सुनने को मिलते हैं। सुप्रीम कोर्ट में प्रसिद्ध समाजसेवी इन्दिरा जय सिंह ने बताया कि असामाजिक तत्व गोवंश से कहीं आगे बढ़कर बच्चा चोरी का आरोप लगाकर लोगों को मार रहे हैं। महाराष्ट्र में ऐसी घटनाएं हुई हैं। बच्चा चोरी के शक में भी एक दर्जन लोगों की हत्या कर दी गयी है।
यह निश्चित रूप से चिंतनीय है और भीड़ का तंत्र समझने के लिए हमें बाध्य करती है। बच्चों की चोरी के शक में निर्दोष लोगों को पीट-पीट कर मार डालने की वारदातें साम्प्रदायिक और जातीय विद्वेष भर नहीं हैं बल्कि पुलिस और कानून-व्यवस्था की नाकामी इससे साबित होती है। यह सिर्फ कानून-व्यवस्था की नाकामी तक सीमित रहना तब भी इसके सुधरने की उम्मीद की जा सकती थी लेकिन इसके पीछे एक तरह का उन्माद भी दिखाई पड़ता है। फेसबुक और व्हाट्सअप पर अफवाहें फैलायी जाती हैं। महाराष्ट्र के धुले में भीख मांगने वाले पांच लोगों को भीड़ ने अपना निशाना बनाया। उन्होंने एक कमरे में शरण ले रखी थी। उनके बारे में सुनियोजित तरीके से अफवाह फैलायी गयी। उनकी मदद के लिए पुलिस जब तक पहुंचती तब तक भीड़ ने उन्हें पीट-पीट कर मार डाला। इसी तरह का एक हादसा महाराष्ट्र ने माले गांव में होने से बच गया। बम विस्फोट के मामले में मालेगांव कई वर्षों से चर्चित रहा है। माले गांव में जब एक परिवार के पांच लोगों को इसी तरह से मारने की साजिश रची गयी तो पुलिस ने समय पर पहुंचकर उन्हें बचा लिया। इसलिए भीड़ की हिंसा रोकने के लिए कानूनी कार्रवाई से कहीं जयादा राजनीति की दृढ़ इच्छा शक्ति चाहिए।