व्याकुल मन

जब व्याकुल मन में उत्पन्न होते है,
अनगिनत  से  अनबूझे  सवाल।
तब दीवारों पर मौन हुई तस्वीरे
भी अचानक बात करने लगती है।।
अचानक ही मिलने लगते है जवाब,
जीवन   की   हर   उलझनों   का,
जिनका हल किसी भी मानव रूपी
कठपुतली  के  पास  नही  है।
क्योंकि हर कठपुतली अपनी ही
जिम्मेदारियों  के  धागों  के आगे
नाचती है।दिन और रात,बिना रुके,
बिना थके , बदहवास सी,अपने ही
अनसुलझे सवालो का जवाब ढूंढते हुए।
दीवार पर टिक-टिक करती घड़ी की आवाज,
संगीत की अनुभूति सा प्रतीत होता है कहीं,
और कहीं असहनीय शौर सा महसूस होता है।
जो चीर देता है,अंतर्मन की समस्त संवेदनाओ को,
तब ऐसा लगता है कि तस्वीरे बोलने लगी है।
लेकिन ना जाने ये भी कब तक साथ देंगी ?
नीरज त्यागी `राज`
ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश ).

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