हाल ही में तीन नक्सली हमलों ने अपना ध्यान एक बार फिर अपनी तरफ ध्यान खींचा है। पहली घटना झारखंड के सरायकेला में घटी जहाँ नक्सली हमले में 5 पुलिसकर्मी शहीद हो गये। दूसरी घटना पिछले महीने महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में घटी जब नक्सली हमले में 1 ड्राइवर समेत 15 सुरक्षाकर्मी शहीद हो गये। तीसरी घटना छतीसगढ़ के दंतेवाड़ा में घटी जब लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के विधायक भीमा मांडवी अपने 4 सुरक्षाकर्मियों के साथ मारे गये। इन सभी हमलों के पीछे नक्सलियों का केवल एक मकसद था, अपने वजूद को बचाये रखना।गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के 11 राज्यों के 90 जिलों में नक्सलियों का आतंक मौजूद है जिनमें बिहार के सर्वाधिक 16, आंध्र प्रदेश के 6, छतीसगढ़ के 14, झारखंड के 19, केरल के 3, मध्य प्रदेश के 2, महाराष्ट्र के 3, ओडिशा के 15, तेलंगाना के 8, उत्तर प्रदेश के 3 जिले और पश्चिम बंगाल का 1 जिला झाड़ग्राम शामिल है। अगर केंद्र सरकार द्वारा विशेष वितीय सहायता की बात करें तो 2017-18 और 2018-19 में 30-01-2019 तक करोड़ों रुपये दिये गये हैं। इसमें आंध्र प्रदेश को 25 करोड़, बिहार को 110 करोड़, छतीसगढ़ को 200 करोड़, झारखंड को 340 करोड़, महाराष्ट्र को 25 करोड़, ओडिशा को 50 करोड़ और तेलंगाना को 25 करोड़ दिये गये हैं। अगर नक्सलवाद के इतिहास की बात करें तो इसकी शुरुआत 25 मई, 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से हुई थी। इसकी शुरुआत करने वाले चारु मजुमदार और कानू सान्याल ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके हक माँगने की लड़ाई का तरीका ऐसा रंग लेगा।
दरअसल जमींदार से अपने हक के 5 रुपये नहीं मिलने के कारण, जमींदार की हत्या करके इसकी शुरुआत हुई थी। मजुमदार चीन के कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरूप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। शुरुआती सालों में माओ आंदोलन केवल गरीबों को उनके हक दिलाने और उनके साथ न्याय के लिए था। साल 1969 में पहली बार चारु मजुमदार और कानू सान्याल ने भूमि अधिग्रहण को लेकर पूरे देश में सत्ता के खिलाफ एक व्यापक लड़ाई शुरू कर दी। भूमि अधिग्रहण को लेकर देश में सबसे पहली आवाज नक्सलबाड़ी से ही उठी थी। आंदोलनकारी नेताओं का मानना था कि जमीन उसी की जो उस पर खेती करता है। लोगों को हक दिलाने के लिए शुरू हुए इस आंदोलन में जल्द ही राजनीतिक वर्चस्व बढ़ने लगा जिससे यह अपने मूल उद्देश्य से भटक गया।
जब यह आन्दोलन बिहार पहुँचा तो यह लड़ाई जमीनों के लिए न होकर जातीय वर्ग में तब्दील हो गयी। यहाँ से उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग के बीच उग्र संघर्ष शुरू हुआ। यहीं से नक्सल आन्दोलन ने देश में नया रूप धारण किया। श्रीराम सेना जो माओवादियों की सबसे संगठित सेना थी, उसने उच्च वर्ग के खिलाफ सबसे पहले हिंसक प्रदर्शन शुरू किया। 1972 में आंदोलन के हिंसक होने के कारण चारु मजुमदार को गिरफ्तार कर लिया गया और 10 दिन के कारावास के दौरान ही उनकी जेल में ही मौत हो गयी। नक्सलवादी आंदोलन के प्रणेता कानू सान्याल ने आंदोलन के राजनीति का शिकार होने के कारण और अपने मुद्दों से भटकने के कारण तंग आकर 23 मार्च, 2010 को आत्महत्या कर ली।