देवीधुरा में सात मिनट तक चली बग्वाल, फल-फूलों के बीच खूबे चले पत्थर

चंपावत : बारिश के बीच मां बाराही धाम देवीधुरा में इस बार भी बदले स्वरूप के बीच फल फूलों के साथ ही पत्थरों से खोलीखाड़ दूबाचौड़ मैदान में रणबाकुरों के बीच पाषाण युद्ध हुआ। करीब सात मिनट तक चले इस युद्ध में पांच दर्जन के करीब दर्शक और योद्धा घायल हो गए। पुजारी की शंखध्वनि के बाद दो मिनट तक पत्थर चलते रहे।

देश विदेश से पहुंचे लाखों श्रद्धालुओं की मौजूदगी में चारों खामों गहड़वाल, चम्याल, वालिक व लमगड़िया के योद्धाओं ने बग्वाल से पहले जत्थे के रूप में मंदिर और मैदान की जोश और उल्लास के साथ परिक्रमा की। वह हाथों में फर्रों व डंडों के साथ सिर में साफा पहने हुए बग्वाल के प्रति खासे उत्सुक व रोमांच से भरपूर नजर आए।

जैसे ही परिक्रमा पूरी हुई सभी बग्वाली वीर खोलीखांड मैदान में आमने सामन हो गए। 2:42 पर एक-दूसरे की तरफ फल फूलों की बरसात होने लगी। देखते ही देखते साथ में पत्थर भी चलने शुरू हो गए। सात मिनट तक चला यह पाषाढ युद्ध अपराह्न 2: 49 बजे पुजारी की शंखध्वनि बजाने के साथ खत्म हुआ। पत्थर लगने से बग्वाली वीरों के साथ ही दर्शक भी घायल हुए हैं। इस युद्ध में करीब 60 लोगों के जख्मी होने की सूचना है।

बग्वाल के बाद सभी योद्धाओं ने एक दूसरे को गले मिलकर कुशलक्षेम पूछी। जंग के मैदान में उतरने के लिए कठिन तप से गुजर रहे बग्वाली वीरों ने  पूरा दिन मां बाराही की आराधना में गुजारा। दूरदराज से लोग इस युद्ध को देखने के लिए देवीधुरा पहुंचे थे। रक्षाबंधन पर खेला जाने वाला यह युद्ध कई सदी पूरा कर चुका है। हर बार मां बाराही के प्रति आस्था बढती जा रही है।हांलाकि युद्ध केतरीके को बदलने के लिए फल फूल का प्रावधान हुआ है, लेकिन पत्थर अब भी खूब चलते है।।

मां के दरबार में चार खाम गहड़वाल, चम्याल, वालिक व लमगड़िया के योद्धाओं ने बिना किसी जीत-हार की चिंता के युद्ध में इस बार भी पराक्रम दिखाया। बग्वाल का समय मंदिर के पुजारी व युद्ध के बीच विराम के लिए शंखध्वनि व घंटी की आवाज पर निर्भर रहा। लड़ाई तब तक जारी रही, जब तक एक व्यक्ति के बराबर रक्त नहीं बहा। जब युद्ध चरम था तो माइक से पुजारी इसकी गाथा बताते जा रहे थे।

लोक मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन वन में 53 हजार वीर और 64 योगनियों का जबरदस्त आतंक था। स्थानीय लोग इनसे भयभीत थे। लोगों को मां बाराही ने आतंक से मुक्ति दिलाकर प्रतिफल के रूप में नर बलि की इच्छा जताई। समय के साथ नरबलि की प्रथा बंद हो गई, लेकिन इसका विकल्प तलाशा गया। पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जाएगा। तभी से यह युद्ध अनवरत जारी है और हर साल लोगों की आस्था बढ़ती जा रही है।

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