हार में भी कांग्रेस के हौसले को उड़ान देने में कामयाब रहे राहुल
नई दिल्ली। गुजरात चुनाव के अंतिम नतीजे भले ही कांग्रेस के नए अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए सुखद नहीं रहे। मगर इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अपराजेय मानी जा रही सियासी जोड़ी को उनके ही दुर्ग में राहुल ने जैसी कड़ी टक्कर दी है उससे कांग्रेस में हौसले की नई उम्मीद जगी है। गुजरात के नजदीकी चुनावी मुकाबले ने कांग्रेस अध्यक्ष के रुप में राहुल गांधी की शुरू हुई पारी पर उठाए जाने वाले कई सवालों को भी फिलहाल थाम लिया है।
-गुजरात ने भाजपा को दिया बहुमत तो राहुल को मिली हिम्मत
राजनीतिक रुप से गुजरात चुनाव में कांग्रेस का बीते डेढ दशक में सबसे ज्यादा सीटें हासिल करना भी सत्ता की तस्वीर नहीं बदल सका। मगर सूबे की सियासी हकीकत के लिहाज से जो कांग्रेस तीन महीने पहले इस चुनाव में दूर दूर तक मुकाबले में नहीं मानी जा रही थी उसका यह प्रदर्शन काबिलेगौर तो कहा ही जाएगा। इसी अगस्त में पहले शंकर सिंह वाघेला ने 8 विधायकों के साथ पार्टी तोड़ी तो उसी समय राज्यसभा चुनाव में उसकेआधा दर्जन विधायकों ने राज्यसभा चुनाव में भाजपा का हाथ थाम लिया। तब बड़ी मशक्कत से अहमद पटेल को एक वोट से राज्यसभा में जीत मिली। 2012 के चुनाव में 61 सीटें जीतने वाली कांग्रेस अगस्त में 42 विधायकों के साथ लूटी-पिटी स्थिति में खड़ी थी। इस राजनीतिक हालात के तीन महीने के भीतर राहुल गांधी ने जिस तरह कांग्रेस के संगठन को हौसले के साथ मुकाबले के लिए तैयार किया उसी का नतीजा है कि पार्टी के सीटों की संख्या 80 तक पहुुंची है।
कांग्रेस के इस प्रदर्शन को तमाम कसौटियों पर परखा जाएगा मगर इस बात को लेकर दो राय नहीं हो सकती कि यह पीएम मोदी का गृह प्रदेश है। मोदी की लोकप्रियता और सियासी ताकत पर शायद ही उनके सूबे में कोई संदेह की सूई भी उठाए। पीएम की इस छवि की ताकत को जमीन पर उतारने के लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जैसे कुशल रणनीतिकार मैदान में अपने जबरदस्त प्रबंधन के साथ मौजूद थे। देश की राजनीति की मौजूदा सबसे ताकतवर इस जोड़ी के सामने राहुल के लिए गुजरात में उनको चुनौती देना किसी सियासी उपलब्धि से कम नहीं। खासकर यह देखते हुए कि राहुल की सियासी परिपक्वता और क्षमता को लेकर विरोधी खेमेे की ओर से लगातार सवालों के तीर दागे जाते रहे हों।
चुनावी अभियान में सवालों के इन तीर का सामना करते हुए राहुल दबाव में नहीं आए। शायद यही वजह रही कि हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणाी जैसे पार्टी के बाहर के युवा चेहरों को कांग्रेस के साथ जोडऩे में राहुल कामयाब रहे। इस सियासी समीकरण की वजह से ही कांग्रेस के सीटों का आंकड़ा करीब दोगुना पहुंचा है। तो भाजपा को अपनी सत्ता बचाने के लिए जबरदस्त पसीने बहाने पड़े हैं। खास बात यह रही कि गुजरात के चुनाव अभियान में मुद्दों को उठाने में लगातार दिखायी गई दृढ़ता के बीच उबाल में भी संयम नहीं खोने की राहुल की रणनीति ने भी काफी हद तक सूबे के लोगों को प्रभावित किया। इसका फायदा भी कांग्रेस को मिला और वह गुजरात में पहले से कहीं ज्यादा मजबूत विपक्ष के रुप में सामने आयी है। तो राहुल गांधी को भी सूबे ने बतौर बड़ेे नेता के रुप में स्वीकार कर लिया है।
गुजरात में राहुल और कांग्रेस के इस प्रदर्शन से जाहिर तौर पर पार्टी कैडर से लेकर नेताओं में भविष्य की राजनीति के लिए हौसला बढ़ेगा। नतीजों के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने गुजरात के नतीजों के बाद जिस तरह राहुल की अगुआई में अगले चुनावों और सियासी चुनौतियों का नये हौसले से मुकाबले करने की जो बातें कहीं वह इसी ओर संकेत करती हैं। पार्टी नेताओं में यह उम्मीद जगी है कि जब राहुल की अगुआई में पार्टी गुजरात में ऐसा प्रदर्शन कर सकती है तो दूसरे सूबों में इसे बेहतर करने की कांग्रेस की क्षमता खत्म नहीं हुई है। इस लिहाज से कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर पारी की शुरुआत में चुनावी आंकडों का गणित जरूर दो शून्य से राहुल के खिलाफ गया है। मगर राजनीतिक हौसले के हिसाब से गुजरात ने कांग्रेसियों को राहुल की अगुआई में आगे बढऩे की हिम्मत तो जरूर दी है।