शिक्षा में गुणवत्ता की शर्तें अधूरी
भारत स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या के आधार पर तैयार की गई सूची में नीचे से चौथे पायदान पर
शिक्षा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए होती है। जीन पियाजे ने शिक्षा के उद्देश्य के बारे में लिखा था, शिक्षा का सबसे र्पमुख कार्य ऐसे मनुष्य का सृजन करना है जो नए कार्य करने में सक्षम हो, न कि अन्य पीढिय़ों के कामों की आवृत्ति करना। शिक्षा से सृजन, खोज और आविष्कार करने वाले व्यक्ति का निर्माण होना चाहिए। क्या ऐसा संभव हुआ है? हमने शिक्षा में गुणवत्ता नहीं पैदा की। शिक्षा का अधिकार अधिनियम-२००९, अप्रैल, २०१० से र्पभावी तौर पर लागू है और इस अधिनियम को लागू हुए ८ साल हो गए, लेकिन शिक्षा को लेकर जो हमारा सपना था, वो कहीं भी रूप लेता नहीं दिख रहा। हम वहीं खड़े हैं, जहां से चले थे।यूनिसेफ ने मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के पचमढ़ी में सोशल मीडिया और शिक्षा विषय पर कार्यशाला आयोजित की, कार्यशाला में जो तथ्य सामने आए, वे राज्य की शिक्षा व्यवस्था का खुलासा करने के लिए पर्याप्त थे। सितंबर २०१४ में आई यू-डाइस (एकीकृत जिला शिक्षा सूचना र्पणाली) के आंकड़े बताते हैं कि राज्य के ५,२९५ विद्यालय ऐसे हैं, जिनमें शिक्षक ही नहीं है। राज्य में शिक्षा का अधिकार लागू होने के पांच साल बाद की शालाओं की बदहाली की कहानी यहीं नहीं रुकती। एक तरफ जहां शिक्षक विहीन विद्यालय हैं, वहीं १७ हजार ९७२ विद्यालय ऐसे हैं जो एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। ६५ हजार ९४६ विद्यालयों में तो महिला शिक्षक ही नहीं है। प्रदेश की २४.६३ प्रतिशत प्राथमिक शालाओं तथा ६३.४४ प्रतिशत माध्यमिक शालाओं में पेयजल की अनुपलब्धता है जिसके चलते बच्चों को या तो अपने कांधे पर बॉटल लेकर जाना होता है या फिर प्यासे ही पढऩा पड़ता है। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट के अनुसार २०१४ में भारत में निजी स्कूल जाने वाले बच्चों का प्रतिशत बढ़ रहा है, २०१० में यह दर ३९.३ फीसदी थी। रिपोर्ट के अनुसार जहां वर्ष २००९ में कक्षा ३ के ५.३ प्रतिशत बच्चे कुछ भी पाठ नहीं पढ़ सकते थे, वहीँ २०१४ में यह अनुपात और बढ़ कर १४.९ प्रतिशत हो गया है। इसी तरह से २००९ में कक्षा ५ के १.८ प्रतिशत बच्चे कुछ भी पाठ नहीं पढ़ सकते थे, २०१४ में यह अनुपात और बढ़ कर ५.७ र्पतिशत हो गया है। गणित को लेकर भी हालत बदतर हुई है, रिपोर्ट के अनुसार २००९ में कक्षा ८ के ६८.७ प्रतिशत बच्चे गुणा-भाग कर सकते थे, लेकिन २०१४ में यह ४४.१ प्रतिशत हो गया है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में कक्षा आठवीं के २५ फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ भी नहीं पढ़ सकते हैं। राजस्थान में यह आंकड़ा ८० फीसदी और मध्यर्पदेश में ६५ फीसदी है। इसी तरह से देश में कक्षा पांच के मात्र ४८.१ फीसदी छात्र ही कक्षा दो की किताबें पढऩे में सक्षम हैं। अंग्रेजी की बात करें तो आठवीं कक्षा के सिर्फ ४६ फीसदी छात्र ही अंग्रेजी की साधारण किताब को पढ़ सकते हैं। राजस्थान में तो आठवीं तक के करीब ७७ फीसदी बच्चे ऐसे हैं, जो अंग्रेजी का एक भी हर्फ नहीं पहचान पाते, वही मध्य प्रदेश में यह आकड़ा ३० फीसदी था। अब चार साल बाद भी इसमें कोई खास सुधार नजर नहीं आता है। यकीन न हो तो किसी सरकारी प्राइमरी स्कूल में बच्चे से पहाड़ा सुनते थे इमला लिखवाते।यू नेस्को द्वारा दुनिया भर में प्राथमिक शिक्षा की दशा-दिशा का जायजा लेने वाली जारी की गई सालाना रिपोर्ट में भारत में बुनियादी शिक्षा के कार्यक्रमों और अभियानों- जैसे शिक्षा का अधिकार कानून और सर्वशिक्षा अभियान के नतीजों को सकारात्मक बताया गया है। भारत ने बच्चों को स्कूल भेजने के मानक पर दुनिया में सबसे तेज प्रगति की। रिपोर्ट के अनुसार जहां भारत में स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या साल २००० में २ करोड़ थी तो वहीं साल २००६ में ये संख्या घटकर २३ लाख और साल २०११ में १७ लाख रह गई। हालांकि इस उल्लेखनीय प्रगति के बाद भी भारत स्कूलों से बाहर रहने वाले बच्चों की संख्या के आधार पर तैयार की गई सूची में नीचे से चौथे पायदान पर है।प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा की बद से बदतर हालत के लिए कुछ हदतक हमारा समाज भी जिम्मेदार है। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि देश के अधिकतर अभिभावक मौजूदा दौर को देखते हुए अपने बच्चों को तो अंग्रेजी माध्यम या फिर मिशनरी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन ठीक इसके विपरीत अभिभावक स्वयं प्राथमिक स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं। इसके पीछे कारण है, क्योंकि प्राथमिक स्कूल में पढ़ाई के अलावा और सभी कार्य होते हैं और आप दबाव वाले हैं तो घर बैठ कर सरकारी पैसों पर मौज कर सकते हैं। बच्चों को वे यहां इसलिए नहीं पढ़ाते क्योंकि यहां पढ़ाई न के बराबर होती है। प्रभावशाली लोगों के बच्चे जब वहां नहीं पढ़ेगे तो शिक्षा का स्तर कैसे सुधरेगा। सरकार ने दोपहर के भाजन की योजना इसलिए चलाई थी कि गरीब बच्चों को पोषकतत्व युक्त भोजन मिलेगा, जिससे उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास में वृद्धि होगी। पर हकीकत में इस योजना से नुकसान ज्यादा हो रहा है। असल में सरकार बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए प्राथमिक व उच्च प्राथमिक बच्चे के लिए १०० से १५० ग्राम प्रतिदिन मीनू के अनुसार भोजन की व्यवस्था करती है, लेकिन जब अध्यापकों से इस योजना पर राय जानी तो उन सभी का मानना है कि यह योजना पूरी तरह से दलाली और भ्रष्टाचारियों के चंगुल में फंसी है और इससे बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह बर्बाद हो रही है।