प्रदर्शन को लेकर चिंतित AAP, पार्टी के अंदर मंथन का दौर शुरू

नई दिल्‍ली । आम आदमी पार्टी में मंथन का दौर शुरू है। गठन के शुरुआती समय में पार्टी का जो प्रदर्शन रहा है, उसमें निरतंर गिरावट दर्ज हुई है। इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि पंजाब में 2014 में हुए लोकसभा के आम चुनाव में पार्टी ने चार सीटें जीती, लेकिन नगर पालिका के 462 पार्षदों के चुनाव में से मात्र एक सीट मिली। यह परिणाम आप के लिए चौंकाने वाले  थे। इतना ही नहीं दिल्‍ली के स्‍थानीय निकाय के चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन अच्‍छा नहीं रहा।

हाल ही में संपन्न हुए तीन नगर निगमों और 32 नगर पालिकाओं व नगर पंचायतों के चुनाव में मात्र एक वार्ड पर मिली जीत ने पंजाब में आम आदमी पार्टी की वैकल्पिक राजनीति की संभावनाओं को धूमिल कर दिया है। साढ़े तीन साल पहले जिस पार्टी ने पूरे देश में मोदी लहर के बीच चार संसदीय सीटें जीती हों, उस पार्टी की हालत यह हो जाए कि उसे 462 पार्षदों के चुनाव में से मात्र एक सीट मिले, यह इस पार्टी के लिए सचमुच मंथन करने की घड़ी है।

पार्टी में अरविंद केजरीवाल के बाद सबसे मकबूल नेता मनीष सिसोदिया को पंजाब की कमान सौंपकर पार्टी ने एक बार फिर से यह जता दिया है कि जिस राज्य से उसे सबसे ज्यादा आशा थी उसे केवल स्टेट लीडरशिप के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता।

दरअसल, पंजाब विधानसभा के चुनाव में पार्टी को जब मात्र 20 सीटें मिलीं तो यह सवाल उभरा था कि केंद्रीय लीडरशिप द्वारा स्टेट पॉलिटिक्स में दखलअंदाजी के कारण पार्टी का यह हाल हुआ है। चुनाव नतीजों के बाद पंजाब प्रभारी संजय सिंह ने इस्तीफा दे दिया था।

इसके बाद केंद्रीय लीडरशिप ने सांसद भगवंत मान को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर पंजाब उनके हवाले कर दिया। यही नहीं, एचएस फूलका की जगह तेज तर्रार नेता सुखपाल खैहरा को नेता विपक्ष बनाया गया। भगवंत मान, खैहरा और अमन अरोड़ा की एक कमेटी बनाकर सारा काम चलाने की छूट भी दी गई।

इसके बावजूद न तो पार्टी गुरदासपुर संसदीय उपचुनाव में अपनी जमानत बचा सकी और न ही अब निकाय चुनाव में। खासतौर पर पार्टी की उन नगर पालिकाओं या नगर निगमों में भी कोई खास उपस्थिति दर्ज नहीं हुई जहां से पार्टी के सांसद या विधायक हैं।

मात्र चार साल की इस पार्टी ने पंजाब में ही कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। 2014 के चुनाव में चार संसदीय सीटें पार्टी ने भारी अंतर से जीती थीं। भगवंत मान, डॉ. धर्मवीर गांधी, एचएस खालसा और प्रो. साधू सिंह जैसे नेता संसद की सीढिय़ां चढ़े। पार्टी ने लोगों को आश्वस्त किया कि उनके बीच से साफ सुथरी छवि वालों को पार्टी टिकटें देगी और वैकल्पिक राजनीति करेगी।

लेकिन जब केंद्रीय लीडरशिप से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को हटाया गया, आंतरिक लोकपाल एडमिरल रामदास जैसे लोगों ने पार्टी को छोड़ा तो पार्टी के पंजाब से भी पांव उखडऩे लगे। केंद्रीय लीडरशिप को लग रहा था कि पंजाब के लोग उसके साथ हैं।

उन्हें स्टेट लीडरशिप की जरूरत नहीं, इसीलिए पहले सुच्चा सिंह छोटेपुर और उसके बाद गुरप्रीत घुग्गी जैसे नेताओं को प्रदेश संयोजक पद से हटाने से साफ हो गया कि पार्टी का एकमात्र एजेंडा सत्ता पर काबिज होना है, न कि वैकल्पिक राजनीति को बढ़ाना।

पंजाब को प्रयोगशाला बना दिया

पार्टी ने पंजाब को एक प्रयोगशाला के रूप में चुना। यहां केवल कनवीनर बनाकर ही काम चलाते रहे। किसी भी स्तर पर पार्टी के संगठन को खड़ा करने की कोशिश नहीं की गई। विधानसभा चुनाव के दौरान केंद्र की ओर से भेजे गए 53 लोग यहां की लीडरशिप को गुमराह करते रहे। उन पर विधानसभा चुनाव में पैसे लेकर टिकटें देना, आम वर्करों की टिकटें काटकर धनाढ्य उम्मीदवारों को उतारना जैसे कई आरोप लगे।

अब भी नहीं संभले तो…

पार्टी के लिए सबसे बड़ा सवाल फिर से मंथन करके खड़े होने का है। 2019 के संसदीय चुनाव को अब ज्यादा समय नहीं बचा है। शायद इसी वजह से अरविंद केजरीवाल ने अपने सबसे विश्वासपात्र मनीष सिसोदिया को पंजाब में भेजा है। यदि इसके बाद भी पार्टी न संभली तो उसके लिए 2014 को दोहराना मुश्किल हो जाएगा।

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