देश से पहले स्वयं को देखो : स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती ‘बापू’
विकास आज के समय का ऐसा शब्द हो गया है कि हर आदमी की जबान पर, हर समय चढ़ा रहता है। देश में जिसे भी देखो, वही विकास की बात कर रहा है। देश का विकास ऐसे होना चाहिए, देश विकास वैसे होना चाहिए, सरकार को ऐसा करना चाहिए, सरकार को वैसा करना चाहिए। विकास तो समाज में निरन्तर चलने वाली एक प्रक्रिया है, प्रकृति में भी यह क्रिया निरन्तर गतिमान रहती है। अनादि काल से प्रकृति भी तो विकास ही कर रही है और आज मनुष्य जो बात कर रहा है, इस स्थिति तक पहुंचा है वह भी विकास की ही देन है। मनुष्य अपने प्रयासों से उतना विकास नहीं कर पाता है, जितना कि प्रकृति उससे करवा लेती है। फिर भी आदमी ही तो ठहरा! अपने विकास के बारे में कभी बात नहीं करेगा, बात करेगा, समाज के विकास के बारे में, देश के विकास के बारे में।
मनुष्य यह क्यों नहीं सोचता कि जिसके विकास की वह बात कर रहा है, वह हैं कहाँ, उसकी शुरूआत कहाँ से होती है। समाज क्या है, समाज कहाँ है, देश क्या है और देश कहाँ है? यह समाज और देश कैसे बनते हैं, किसके द्वारा बनते हैं? जिसकी हम बात कर रहे हैं, उसका अस्तित्व हमसे ही शुरू होता है। चाहे समाज हो या देश, दोनों की शुरूआत हमसे ही होती है। हमसे अलग हमारा समाज और देश नहीं हो सकता। तो जो लोग बात करते हैं समाज और देश के विकास की, वह कभी अपने विकास की भी बात कर लें तो शायद, देश और समाज के विकास की रूपरेखा तय हो सकती है। अपने विकास की कोई बात नहीं करता है और स्वयं को देखा है कि हम क्या हैं? ऋषियों के इस देश में जहाँ इस धरती पर सबसे पहले स्वयं को जानने की क्रिया आरम्भ हुई, हम उस देश के वासी हैं, उन महान परम्पराओं के पोषक हैं और हम स्वयं को देखना ही भूल गये। दिन-रात दूसरों के विकास की बातें करते रहते हैं। सलाह देते रहते हैं, स्वयं करना कुछ नहीं है। करना तो किसी और को ही है, हम तो केवल सलाहकार हैं। हमारे देश में सलाह हमेशा निःशुल्क मिलती है। हर गली, हर मोड़, हर नुक्कड़ पर सलाहकार मिल जायेंगे और वह भी मुफ्त में। यह मुफ्त की सलाह देने वाले कभी अपनी ओर देखते भी नहीं कि उन्हें स्वयं भी सलाह की आवश्यकता है। देश की ओर देखने से पहले अपने को देखने की आवश्यकता है। अपने को, अपने घर को देखो, जिस कार्य की सलाह देश को दे रहे हो, वह स्वयं पर और अपने घर पर लागू करके देखो। सरकार तुम्हारे घर में शौचालय साफ करने नहीं आयेगी, वह तो तुम्हें/हमें स्वयं ही करना होगा। हम ऐसा न करके, समाज को साफ रहने की सलाह देते हैं। क्योंकि हमारी आदत ही दूसरों को देखने की है, उन पर उंगली उठाने की है। जो उंगली हम दूसरी ओर उठा रहे हैं, उसे पहले अपनी ओर उठायें और जब स्वयं को, अपने व्यवहार को सही से जांच लें कि यह सही है, तभी दूसरों की ओर उंगली उठायें।
अपना घर यदि साफ-सुथरा है तो ही दूसरों को सफाई का संभाषण दें। यदि हमने घर पर दो गाय पाली है तो ही गौ रक्षा की बात करें। घर में कभी किसी ने गाय पाली नहीं और बन गये गौ रक्षक। इन्हीं बातों ने समस्याओं को पैदा किया है। पहले अपने से शुरूआत हो, फिर अपना घर-परिवार, फिर गांव, फिर तहसील क्षेत्र, फिर जिला, फिर प्रदेश और तब कहीं जाकर देश की बात निकलेगी। घर अच्छा होगा तो गांव को अच्छा बनाने का प्रयास करो, गांव अच्छा है तो क्षेत्र को अच्छा बनाने का प्रयास करो और क्षेत्र अच्छा है तो फिर जिले को अच्छा बनाने का प्रयास करो, जब जिला अच्छा हो तो प्रदेश को अच्छा बनाने का प्रयास करो और जब प्रदेश अच्छा हो जाय, तब कहीं जाकर देश की बात आयेगी। पहले ही स्वयं भी अच्छा नहीं है और देश को अच्छा बनाने का संभाषण कर रहे हैं, यह कोरी कल्पना है और कल्पनाओं से समाज और देश नहीं बनते, उसके लिए धरातल पर कार्य करना होता है। जरा सोचो, जिस देश में रेल यात्रा के दौरान शौचालय में पच्चीस रुपये के डब्बे को सुरक्षित रखने के लिए उसमें पच्चीस रुपये की ही जंजीर बांधनी पड़ती है, उस देश के नागरिकों की मानसिकता का अंदाजा लगाया जा सकता है। कोई धर्मात्मा कभी राहगीर को पानी पीने के लिए प्याऊ लगाता है, तो वहां भी प्लास्टिक का डब्बा बांधकर रखना पड़ता है, वरना उसे भी लोग उठा ले जाते हैं। रेल में सफर करने वाले रेल की चादरें और हाथ पोछने वाले तौलिये भी उठाकर ले जाते हैं। ऐसे नागरिकों का देश कभी उन्नति कर सकता है भला! ऐसी मानसिकता वाले देश में विकास की बातें करना समझ से परे है!
सार्वजनिक स्थानों पर तोड़-फोड़ करना तो जैसे इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। अपने ही सामान को तोड़-फोड़कर फेंकना हमारे देश में आम बात हो गई है। कोई भी आन्दोलन बिना सार्वजनिक वस्तुओं के तोड़-फोड़ के सम्पन्न ही नहीं होता है। रेल की पटरियां भी उखाड़ ली जाती हैं, बसें फोड़ दी जाती हैं, क्या क्या नहीं करते हैं हम अपने ही देश को नुकसान पहुंचाने के लिए, ऐसी मानसिकता में विकास की बात करना कितना बेमानी लगता है। अभी हमने सुना है, गाजियाबाद में फब्बारा कोई चुरा ले गया, सड़क पर जहां पुलिस है, आम नागरिक हैं, कौन लोग हैं जो उनसे बचकर बीच सड़क से इतना बड़ा लोहे का फब्बारा उड़ा ले गये और हम विकास की बातें करते रहे। यही नहीं अभी राष्ट्रीय राजमार्ग पर मंहगे मंहगे सोलर लाईट और उनकी बैट्रियां लागई गई थीं। उन्हें भी उखाड़कर ले गये। राजमार्ग तो चौबीस घंटे व्यस्त रहता है, गाड़ियां चलतीं हैं और पुलिस भी पेट्रोलिंग करती है, वहां से भी सोलर और बैट्री चुरा ले गये, सोचो, हमारे देश का क्या होगा? पहले हम अपने आस-पास के विकास को सुरक्षित रखना तो सीख लें, फिर कहीं जाकर यह सोचें कि देश का विकास कैसे होगा? आलस्य और हरामखोरी ने हमारी चेतना को ही मैला कर दिया है। चार बुजुर्ग एकत्र होंगे हैं और गांव की चौपाल में बैठकर ताश खेलेंगे, जुआ खेलेंगे और देश के विकास की बातें करेंगे। गांव के लिए करना कुछ नहीं है, बातें करनी हैं विकास की। किसी भी सरकारी विभाग में जाओ, बिना पैसे के कोई सेवा नहीं दी जाती है, जबकि सब कुछ नियम के तहत फ्री होता है, उसके लिए भी पैसा देना पड़ता है। दिन रात आदमी पैसे के पीछे पड़ा है और बातें करेगा विकास की। हमारे पूर्व राष्ट्रपति जो दिवंगत हुए, अब्दुल कलाम आजाद, कैसे अद्भुत अनुशासन वाले महामानव थे। देश के लिए कितना कुछ नहीं किया, पूरे जीवन देश के लिए करते ही रहे, केवल कहा नहीं, ऐसा अनुशासन यदि आम नागरिकों में हो जाये तो क्या देश का विकास करने से कोई रोक सकता है? सवाल ही पैदा नहीं होता। मोदी के पीछे पड़े हो कोई भी प्रधानमंत्री बनेगा, उसी के पीछे पड़ोगे, मोदी क्या करेगा, वह अकेला कर क्या सकता है, उसका सहयोग कितने लोग कर रहे हैं? वोट देने से सहयोग नहीं होता, उनके द्वारा चलाये गये अभियानों से स्वयं को जोड़ो, देश बनाने वाले कार्य करो तो कोई कुछ कर भी सकेगा। केवल बैठकर बातें करने से कुछ नहीं होगा। मोदी यह नहीं कर रहा, मोदी वह नहीं कर रहा, बस बातें ही हैं, करना स्वयं से कुछ नहीं। स्वयं कुछ योगदान दो फिर कोई बात कहो। सरकारी आदमी तो खासतौर से, यदि सरकारी आदमी चाह ले तो देश का नक्शा बदल जायेगा, लेकिन वह रिश्वत खोरी से ऊपर कोई बात सोचता ही नहीं है।
याद रखो, जब तक एक राष्ट्र, एक भाषा, एक नीति नहीं होगी तब तक कुछ नहीं होगा। जब तक धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर अलग-अलग नीतियां रहेंगी, तब तक राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता। हमारे देश में मुसलमानों के लिए कानून अलग, हिन्दुओं के लिए कानून अलग, दलितों के लिए कानून अलग, ब्राह्मणों के लिए कानून अलग, सबके लिए अलग अलग कानून फिर एकता कैसे आयेगी? समरसता कैसे आयेगी? योग्यता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। योग्यता को भी जातीय चश्में से देखा रहा है। जहाँ प्रतियोगिता का प्रावधान है, वहां स्पष्ट प्रतियोगिता ही होनी चाहिए। डॉक्टर हो, इंजीनियर हो यहाँ पर तो ध्यान रखो कि कोई अयोग्य व्यक्ति इस पद पर न बैठे। आजादी को सत्तर साल बीत गये, आजादी के बाद संविधान निर्माता अम्बेडकर ने केवल दस साल के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी, उसे बढ़ा-बढ़ाकर सत्तर साल तक ले आये और अभी भी कोई उम्मीद नहीं है कि इसे समाप्त किया जायेगा। सत्तर साल से जो लोग इसका लाभ उठा रहे हैं, दलितों में भी वह छोटा सा प्रतिशत है। वह स्वयं डाक्टर, इंजीनियर अधिकारी बने, उनके बच्चे बने और उनके भी बच्चे बन गये, लेकिन बहुत बड़ा वर्ग आज भी वंचित ही है। अब तुम छोड़ो और उन्हें अवसर दो। जो वंचित हैं उन्हें अवसर दोगे तो बहुत जल्दी देश समरसता के मार्ग पर आगे बढ़ जायेगा। जिनकी उन्नति के लिए अम्बेडकर ने यह प्रावधान किया था, उनकी उन्नति तो वास्तव में हुई ही नहीं। दलितों में भी केवल दस प्रतिशत लोग ही सत्तर सालों से इस व्यवस्था का लाभ उठा रहे हैं और नब्बे प्रतिशत लोग उनमें भी वंचति ही रहे। तो जिन्हें लाभ मिल गया है, उन्हें अब बराबरी पर आ जाना चाहिए और अपने ही वंचित लोगों को अवसर देना चाहिए। देश की उन्नति में यह एक बड़ी बाधा है। अभी हमने एक कहानी सुनी है। अमेरिका के राष्ट्रपति से मोदी ने पूछा आपका देश कैसा चल रहा है, तो अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि आपके यहाँ चालीस प्रतिशत वाले चला रहे हैं और आपके द्वारा छोड़े गये सौ प्रतिशत वाले हमारे यहाँ आ गये हैं तो हमारा तो अच्छा ही चल रहा है। तुम योग्यता के साथ समझौता करो, हम तो नहीं करते हैं इसलिए हमारा देश तो बहुत ही अच्छा चल रहा है।
इसलिए हम कहते हैं कि एक कानून बनाओ, गरीब को सहायता दो जाति धर्म के नाम पर अलग-अलग कानून नहीं बनाना है, सहायता जरूरतमंद को देनी चाहिए। पर लगता नहीं है कि देश का कुछ होगा। यह तो भगवान भरोसे ही चल रहा है। जातीय आन्दोलन होंगे और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया जायेगा। गाड़ियां और आदमी भी जलाये जा रहे हैं और कानून केवल जांच आयोग बनाता है। कुछ सार्थक विचार करो, कार्य करो। अपने से ही शुरू करो और फिर देश की बात करो।
-स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती ‘बापू’