राम मंदिर की तरह धनुष्कोटि से लंका तक (फॉर वे) रामसेतु भी बन जाए, यह मेरी व्यासपीठ का मनोरथ है : मोरारीबापू

श्रीकृष्ण की बाल-लीला स्थली रमणरेती में संतों की पावन उपस्थिति में चल रही ग्यारह दिवसीय रामकथा के आठवें दिन कथा उद्गाता मोरारीबापू ने ‘मानस’ के आधार पर प्रेमभूमि में ‘प्रेमसूत्र’ का सात्विक संवाद आगे बढ़ाया। बापू ने कहा की आनंद और उत्साह जब अचानक बढ़ने लगता है तब समझना कि प्रेम प्रकट होने वाला है। प्रेम की नदी बहुत गहरी है, जिसमें उद्धव जैसे बुद्धिसत्तम महापुरुष भी डूब जाते हैं। ऐसे प्रेम तत्त्व का प्राकट्य और उसकी बाधाओं की चर्चा इन दिनों चल रही है। ‘मानस’ से दृष्टांत देते हुए बापू ने कहा कि राम को देखकर जनक राजा का प्रेम प्रगट हो गया था। इसका मतलब यह हुआ कि किसी को देखकर प्रेम प्रकट होता है। भगवान राम वनवास की अवधि पूरी करके जब अयोध्या आएं और भरत से गले मिलते हैं तब इतना प्रेम उमड पड़ा कि निर्णय करना मुश्किल हो गया था कि दोनों में से वनवासी कौन था! आगे कहा कि प्रेम एक में बंधता नहीं, वह बहने लगता है। व्यापकता उसका मूल स्वभाव है। इसलिए तो जब रामजी अयोध्या पहुंचे तब अमित रूप प्रकट करके एक-एक को मिले, प्रसृत हो गए। अहल्या का दृष्टांत देते हुए कहा कि किसी के चरण-स्पर्श से प्रेम भी प्रकट होता है। प्रेमसूत्र की चर्चा में आगे कहा कि प्यास जगे तो प्रेम जगे। प्यास प्रेम को जन्म देती है। प्यास के मार्ग में अतृप्ति ही रहती है। स्वामी शरणानंदजी के वचनों को याद करते हुए बापू ने कहा, प्रेम का क्रियात्मक रूप ‘सेवा’ है । प्रेम जब क्रियान्वित होता है तब आदमी सेवा किए बिना नहीं रह सकता। वो अपने आप को लुटा देता है। प्रेम का विवेकात्मक रूप ‘ज्ञान’ है, जो शतरूपाजी चाहती थी। प्रेम का भावात्मक रूप ‘रस’ है जो दशरथजी चाहते थे।
    ‘मानस’ में से सुतीक्ष्ण का अविरल प्रेम, हनुमानजी का निर्भर प्रेम, अहल्या का अति प्रेम, भरतजी का परम प्रेम, मारीच का अंतर प्रेम आदि का बापू ने सुंदर निरूपण किया। भगवान नंदनंदन की वेणु से जो शब्द प्रकट होता था, पूरे ब्रह्मांड में प्रेम का प्रसव कर देता था। शब्द को बोलने की महिमा तो है ही पर हम जैसों के लिए तो कोई पहुंचे हुए महापुरुष के मुख से निकला शब्द सुनने को मिल जाए तो भी काम बन जाए। श्रवण की अतुलनीय महिमा बताते हुए कहा कि कथा बहुत सुननी पड़ेगी तब जाकर कुछ ग्रंथि-भेदन होगा, संशय छिन्न होंगे। बापू ने यह भी कहा कि कथा में अगर नींद भी आ जाए तो भी कथा में आओ। संसार की व्यथा में सोने से बेहतर है कि कथा में सो जाओ। संसार में कोई जगायेगा नहीं, कथा में तो कोई मंत्र, कोई सूत्र, कोई चौपाई, सूरदास का कोई पद जगा देगा। बापू ने कहा कि सत्य जहां से मिले, ले लेना चाहिए और ईमानदारी से उसका नाम ले कर कहना चाहिए।
     कथा के दौर को आगे बढ़ाते हुए बापू ने जब श्रीधाम अयोध्याजी को याद किया तब बापू राम मंदिर के निर्माण को लेकर भाव से भर गए। और कहा कि राममंदिर का शुभारंभ होने जा रहा है, इससे बड़ी खुशी क्या हो सकती है! यह बहुत बड़ा सगुन है। सबको बधाई देते हुए कहा कि राम कोई एक का नहीं, सर्वान्तरात्मा हैं। राम मंदिर की तरह धनुष्कोटि से लंका तक रामसेतु भी बन जाए, वो भी फोर वे, यह मेरी व्यासपीठ का मनोरथ है। बापू ने कहा, हमने मानसिकरूप से व्यासपीठ से रामसेतु की नींव भी डाल दी है। बापू ने आशा व्यक्त की कि सब अच्छा हो रहा है तो यह भी होगा। क्योंकि हमारे देश की पूरी परंपरा सेतुबंध की परंपरा है, तोड़ने की है ही नहीं। तोड़े सो धर्म नहीं, जोड़ें सो धर्म। विनोबाजी के वचनों को याद करते हुए कहा कि दो धर्मों के बीच में कभी लड़ाई नहीं होती, दो अधर्मों के बीच में ही लड़ाई होती है। प्रशासन के सभी नियमों के साथ जनवरी में धनुष्कोटि में कथा गान के लिए जाने की बात भी बापू ने कही।
     भगवान के अवतार के कारणों में से प्रतापभानु की कथा अंतर्गत रामकिंकरजी का भाव प्रस्तुत करते हुए कहा कि सत्यकेतु का पुत्र कालकेतु के पीछे दौड़ा जा रहा है। जीवन की यही करुणा है कि सत्य की ध्वजा फहराने वाले लोग जब अवसरवादियों के पीछे दौड़ने लगते हैं तब उनको सत्संग नहीं मिलता, पर कोई कपटमुनि का कुसंग ही मिलता है। चौपाइयों के गायन के साथ बापू ने आध्यात्मिक और गृहस्थ जीवन का मार्गदर्शन करते हुए रामजन्म प्रसंग का सुंदर विस्तृत वर्णन के साथ कथा को विराम दिया।

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