प्रासंगिक : भरोसे ने बढ़ा दीं भाजपा की उम्मीदें

लखनऊ । उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों के तीन संदेश हैं। पहला, जनता ने आठ माह की योगी सरकार को मान्यता दे दी, दूसरा यह कि अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को उसी जनता ने नगर निगमों में नकार दिया और तीसरा, बहुजन समाज पार्टी ने साबित किया कि उसे समाप्त मान लिए जाने के दावों में दम नहीं। मुस्लिम वोटों को अपने पाले में खींच ले जाने में वह सफल रही।

उत्तर प्रदेश के इस चुनाव में पूरे नंबरों से पास होने वाली भाजपा की जीत का एक अर्थ यह भी है कि मतदाताओं को उससे बहुत अधिक अपेक्षाएं हैं। यह पहला अवसर था जब कोई मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में प्रचार करने उतरा।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या से आरंभ कर 14 दिनों में 40 सभाएं कीं। भाजपा की जीत को उसके आलोचक अब भले ही महत्व न दें और इसे लगभग पचीस प्रतिशत आबादी का मतदान घोषित करें, लेकिन यदि भाजपा के इतने मेयर प्रत्याशी न जीते होते तो शोर मचता और तत्काल इस नतीजे को गुजरात तक खींचा गया होता। तब इसे योगी सरकार का खराब प्रदर्शन और ‘सांप्रदायिकता से नाराजगी व ऊब’ बताया जाता।

विधानसभा चुनावों के बाद और 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले का अकेला बड़ा चुनाव होने के कारण निकाय चुनावों को योगी सरकार की परीक्षा माना जा रहा था और अब परिणाम आने के बाद कहा जा सकता है कि जनता ने उस पर मुहर लगा दी। भाजपा के न केवल 14 मेयर होंगे बल्कि सभी नगर निगमों में उसके पार्षदों की संख्या भी 2012 की तुलना में काफी अधिक हो गई है। पहली बार कई सदनों में उसका बहुमत होगा।

नगर पालिकाओं और पंचायतों में भी भाजपा उम्मीदवार जीते। भाजपा के लिए यह चुनाव इस मायने में अधिक कठिन थे क्योंकि सपा-बसपा पहली बार अपने चुनाव चिह्न पर मैदान में थीं। बसपा की मेहनत तो रंग लायी, लेकिन विधानसभा चुनाव हारने के बाद से अब तक के आठ महीनों में समाजवादी पार्टी लोगों को अधिक प्रभावित नहीं कर सकी और दृढ़ विपक्ष के तौर पर अपनी पहचान बनाने में विफल रही। लिहाजा मुस्लिम मतों पर एकाधिकार का सपाई भ्रम अब तो टूट ही जाना चाहिए।

अब इससे आगे की बात। भाजपा और बसपा दोनों के लिए इन परिणामों के निहितार्थ अहम हैं। बसपा नगर निगमों में अपने को उत्तर प्रदेश की नंबर दो पार्टी बना ले जाने में सफल रही है और उसका उभार भाजपा की उस रणनीति के लिए चुनौती है जिसके तहत वह समस्त हिंदू मतों के ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है। भाजपा की कोशिश दलितों को अपने पाले में एकमुश्त कर लेने की है।

लोकसभा और यूपी विधानसभा चुनाव की तरह इस निकाय चुनाव में भी लड़ाई बहुत हद तक अस्सी बनाम बीस की रही लेकिन, जहां भी अल्पसंख्यक वोट दलित मतों के साथ एकजुट हो गए, बसपा वहीं जमकर खड़ी हो गई।

आगे यह देखना दिलचस्प होगा कि बसपा इस मजबूती को जारी रख पाती है या भाजपा अपने इरादों में सफल रहती है।

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