पलायन का दंश

देहरादून। आगामी चुनाव को देखते हुए पार्टियों का उत्तराखंड में पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी चुनावी मुद्दा है। इसका कारण पलायन है, जो चिकित्सा शिक्षा, रोजगार, रोजी रोटी के लिए लोगों को पलायन करने के लिए विवश कर देता है। 17 सालों में यदि पहाड़ का कायाकल्प हुआ होता तो निश्चित रूप से पलायन की गति कम होती। इसे राजनेताओं का जुमला कहें या विकास न पहुंचाने का कारण कि आज भी पहाड़ का पानी और जवानी दोनों निरंतर पलायन को मजबूर हैं। ऐसा नहीं है कि विकास नहीं हुआ, लेकिन सीमांत क्षेत्रों में जिस तेजी से विकास होना चाहिए था। सडक और रेलवे जिस तेजी से पहुंचनी चाहिए थी वह नहीं पहुंची है जिसके कारण अपने फल, सब्जी, अनाज आदि उत्पादों को पैदा करने के बाद भी उत्तराखंडवासी समस्या झेलने पर मजबूर हैं। इसका महज एक कारण पर्वतीय क्षेत्रों की अनदेखी है। पलायन की स्थिति यह है कि पहाड़ के लगभग सभी बड़े नेता या तो देहरादून बस गए हैं या हल्द्वानी। राज्य गठन के बाद 16 सालों में 3000 पहाड़ी गांवों से करीब 40 प्रतिशत पलायन हुआ है। विकास के नाम पर इन सालों में पहाड़ी इलाकों में करीब 15 हजार करोड़ रुपये खर्च हुये,लेकिन गांवों का खाली होना और पलायन थम नहीं रहा। सरकार खुद मान चुकी है कि पलायन रोकने के लिए स्वावलंबन और रोजगारपरक शिक्षा की जरूरत है। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में ढाई लाख घरों पर ताले लटके हैं। महिलाएं ही इस पहाड़ी राज्य की रीढ़ हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड में 6 लाख 23 हजार 392 परिवार गरीबी रेखा से नीचे हैं। जिनको राहत देना सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए,लेकिन अब तक इस मामले में कहीं न कहीं उतनी पहल नहीं हुई कि जितनी होनी चाहिए थी। इसका कारण नेताओं का जनोन्मुखी होने के साथ आत्मोन्मुखी होना है। आगामी सरकार निश्चित रूप से इस मामले में पहल करेगी। यही कारण है कि जनता राष्ट्रवादी दलों के साथ कदम ताल करती दिख रही है।

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