उत्तराखंड: 10 साल में हर गांव से 30 परिवारों का पलायन
देहरादून : प्रदेश के अस्तित्व में आने के बाद प्रतिव्यक्ति आय भले ही 11 गुना बढ़कर अब 160795 रुपये पहुंच चुकी हो, मगर तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। इन गुजरे 17 सालों में राज्य के पर्वतीय इलाकों से पलायन की रफ्तार में तेजी से इजाफा हुआ है। गिरि इंस्टीट्यूट आफ डेवलपमेंट स्टडीज (गिड्स), लखनऊ का अध्ययन बताता है कि पिछले 10 साल में ही प्रत्येक गांव से 25 से 30 परिवारों ने पूरी तरह तरह गांवों को छोड़ दिया है।
यही नहीं, राज्य के दो जिलों पौड़ी और अल्मोड़ा में एक दशक में जनसंख्या में दर्ज की गई गिरावट इसे तस्दीक भी करती है। विशेषज्ञों के मुताबिक जिस हिसाब से पलायन की रफ्तार बढ़ रही है, यदि उसे थामने को बेहद गंभीरता से प्रयास नहीं हुए तो भविष्य में दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं।
हिमालयी राज्य उत्तराखंड में पलायन एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा है। ज्ञानार्जन और तीर्थाटन के लिए पलायन की बात समझ में आती है, लेकिन यहां तो जिसने एक बार गांव छोड़ा दोबारा वापस लौटने की ओर कदम नहीं बढ़ाए। पलायन की तीव्रता का अंदाजा जनगणना-2011 की रिपोर्ट से भी लगता है। भूगोल के लिहाज से राज्य के दो बड़े जिलों अल्मोड़ा और पौड़ी में 2001 व 2011 की जनगणना की तुलना में जनसंख्या वृद्धि दर ऋणात्मक है। सरकार भी मानती है कि इसका प्रमुख कारण पलायन है।
जाहिर है कि पलायन एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है। उत्तराखंड सतत पर्वतीय विकास शिखर सम्मेलन में ‘पलायन: मुद्दा और चुनौतियां’ विषय पर हुए पहले सत्र में गिड्स के प्रोफेसर राजेंद्र पी ममगाईं ने गिड्स की अध्ययन रिपोर्ट का हवाला देते हुए बढ़ते पलायन पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि पौड़ी जिले में 370 और अल्मोड़ा में 256 गांव खाली हो चुके हैं। अन्य जिलों का हाल भी कमोबेश ऐसा ही है।
ममगाईं ने कहा कि पहाड़ में सुविधाओं के विस्तार के साथ ही आजीविका के अवसरों में कमी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं का अभाव जैसे कारणों से पलायन बढ़ा है। थोड़े से भी आर्थिक रूप से सक्षम लोग बेहतर भविष्य के लिए गांव छोड़ रहे हैं। वर्तमान में सिर्फ वे ही लोग मजबूरी में रह रहे हैं, जिनकी आर्थिकी स्थिति ठीक नहीं है। या फिर बुजुर्ग व महिलाएं ही गांव में हैं।
उन्होंने कहा कि पहाड़ से पलायन करने वाले लोगों में से 70 फीसद राज्य से बाहर जा रहे हैं, जबकि शेष 30 फीसद उत्तराखंड के नगरीय क्षेत्रों को अपना ठिकाना बना रहे हैं। उन्होंने कहा कि गहन अध्ययन कर स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार आजीविका के साधनों का विकास करके ही पलायन की समस्या पर कुछ हद तक अंकुश लग सकता है।
शहरों में शिफ्ट हो रही पूंजी
गांवों में विकास के नाम पर जो पूंजी लग भी रही, उसका लाभ गांवों को नहीं मिल रहा। ममगाईं के मुताबिक जो भी ठेकेदार आदि कार्य करा रहे हैं, वे संपन्न होने पर शहरों की ओर दौड़ लगा देते हैं। यानी, जो कमाया उसे वे शहर में लगा रहे हैं।
सिर्फ छह घंटे सोती है पहाड़ की नारी
सम्मेलन में यह बात भी आई कि गुजरे 17 सालों में खेती का रकबा करीब एक लाख हेक्टेयर घटा है। यानी खेती कम हुई है, लेकिन पहाड़ की रीढ़ कही जाने वाली महिलाओं की दशा आज भी जस की तस है। गिरि संस्थान के प्रोफेसर ममगाईं के अनुसार खेती बाड़ी जरूर घटी, लेकिन महिलाएं अब मनरेगा में कार्य कर रही हैं।
गहन शोध की है दरकार
सम्मेलन में विशेषज्ञों ने इस बात पर भी चिंता जताई कि पलायन का दंश झेलने के बाद भी इसे लेकर सरकार की ओर से कोई शोध नहीं कराया गया। बात समझने की है कि जब समस्या के मूल का पता नहीं होगा तो उपचार कैसे होगा। ये भी शोध का विषय है कि आज से तीन-चार दशक पहले हालात ठीक थे, अब बिगड़े हैं तो इसकी वजह क्या है। इसका अनुमान वातानुकूलित कक्षों में बैठकर नहीं, पहाड़ पर जाकर ही लगाया जा सकता है।