सावन की यादे हुई इमारतों के नीचे दफन

एक समय था जब सावन माह के आरंभ होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ पर झूले पड़ जाते थे और महिलाएं गीतों के साथ उसका आनंद उठाती थीं। समय के साथ पेड़ गायब होते गए और बहुमंजिला इमारतों के बनने से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परम्परा से गायब हो रहे हैं। अब सावन माह में झूले कुछ जगहों पर ही दिखाई देते हैं। जन्माष्टमी पर मंदिरों में सावन की एकादशी के दिन भगवान को झूला झुलाने की परम्परा जरूर अभी भी निभाई जा रही है।वर्षा ऋतु की खूबियां अब किताबों तक ही सीमित रह गयी है। वर्षा ऋतु में सावन की महिमा धार्मिक अनुष्ठान की दृष्टि से तो बढ़ ही जाती है। प्रकृति के संग जीने की परम्परा थमती जा रही है। झूला झूलने का भी दौर भी अब समाप्त हो गया है। आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति के संग झूला झूलने की बात अब कहीं नहीं दिखती है। ग्रामीण क्षेत्र की युवतियां भी सावन के झूलों का आनंद नहीं उठा पाती हैं। आज से दो दशक पहले तक झूलों और मेंहदी के बिना सावन की परिकल्पना भी नहीं होती थी। आज के समय में सावन के झूले नजर ही नहीं आते हैं। लोग इसका कारण जनसंख्या घनत्व में वृद्धि के साथ ही वृक्षों की कटाई मानते हैं। लोग अब घर की छत पर या आंगन में ही रेडीमेड फ्रेम वाले झूले पर झूलकर मन को संतुष्ट कर रहे हैं। बुद्धिजीवी वर्ग सावन के झूलों के लुप्त होने की प्रमुख वजह सुख सुविधा और मनोरंजन के साधनों में वृद्धि को मान रहे हैं।

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