दिल छू लिया ‘हिन्दी मीडियम’ ने…
कहते हैं, घास दूर से हमेशा हरी दिखती है… ‘हिन्दी मीडियम’ ने हमारे देश पर चढ़े अंग्रेज़ी के जुनून पर करारा कटाक्ष किया है… हिन्दी बोलने को लेकर हीनभावना के इर्दगिर्द बुना ताना-बाना बड़े करीने और तंज के साथ आज की हकीकत को पर्दे पर साकार करता है… अंग्रेज़ी न आना और हिन्दी बोलना पिछड़ेपन की कसौटी हो गया है… अपनापन, लगाव और स्नेह जितना अपनी भाषा में झलकता है – जैसे अपनी मिट्टी की खुशबू हो – उतना किसी फिरंगी भाषा में कहां…? लेकिन असल में देखें, तो अंग्रेज़ी फिरंगी भी कहां रही… फिरंगियों को गए ज़माने लद गए, लेकिन अब यह हमारी ज़िन्दगी में इस तरह घर कर गई है, जैसे मछली के लिए पानी – जैसे इसके बिना तरक्की नामुमकिन हो…
फिल्म की बात करें तो लाखों हिन्दी बोलने वालों और हिन्दी से लगाव रखने वालों को यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए… अंग्रेज़ी में बोलना और अंग्रेज़ी बोलने वालों के बीच उठना-बैठना आज जिस तरह स्टेटस का सवाल बन गया है, वह आंखें खोलने वाला है… इरफान और सबा कमर ने अपने लाजवाब अभिनय से उस कशमकश को बेहद खूबसूरती के साथ पर्दे पर उतारा है, जहां अपने बच्चे के एक अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल मे दाखिले के लिए वे अपनी ज़िन्दगी को बदल डालते हैं… रिश्तों से भरी पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में रहना, हिन्दी गाने पर बिंदास डांस – फूहड़ता के नमूने के तौर पर लिया जाता है… हिन्दी बोलने वाले दुकानदारों के बच्चों का पॉश इलाके में दिखाया गया खालीपन कचोटता है…
क्या हम अपने बच्चों को अंग्रेज़ी सिखाने और बुलवाने की होड़ में उन्हें बचपन से, अपनी भाषा की मिट्टी की खुशबू से महरूम कर रहे हैं… इसके सौंधेपन और ज़मीनी जुड़ाव से कटी-कटी है आज की नई पौध, जिनके लिए अंग्रेज़ी बोलना आज पढ़े-लिखे होने और नए ज़माने का होने का तमगा है… बोलते और लिखते तो हैं ही, अब तो सोचने भी अंग्रेज़ी में लगे हैं… तभी तो बड़ो को शिकायत है, आज के युवा सम्मान नहीं करते… तहज़ीब और तमीज़ जो अपनी बोली में है, अंग्रेज़ी में कहां… बच्चों, बड़ों, करीबियों या दूर के सब रिश्तों के लिए ‘आप’, ‘तुम’ या ‘तू’ के विकल्प अंग्रेज़ी नहीं देती… ‘यू’ के संबोधन में ही हर किसी को समेट लेती है, लेकिन फिर भी अदा और अंदाज़ में देसी को पछाड़ देती है…
‘हिन्दी मीडियम’ एक तीखा जवाब है, उन लोगों के लिए, जो हिन्दी को हीनभावना के चश्मे से देखते हैं… गलियों को छोड़ पॉश कॉलोनी में बस जाना, बच्चों का आपस में अंग्रेज़ी में बतियाना और विदेश यात्रा के नाम पर फोटोशॉप कर तस्वीरें खिंचवाना उस दौड़ का हिस्सा हैं, जहां मॉडर्न या आधुनिक दिखने की अंधी दौड़ हंसाती और गुदगुदाती है… यह तीखा तंज भी है ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के बीच आ गए फासले पर, जिसकी नींव अंग्रेज़ी ने रखी… बच्चों के बीच भी हम इसी फासले के बीज बो रहे हैं अंग्रेज़ी को लेकर छाई दीवानगी में… अंग्रेज़ी दुनिया बोलती है, इसे आज नहीं, तो कल सीखना ही है बच्चों को… लेकिन बचपन में ही हिन्दी की जड़ें काट देंगे, तो ताउम्र सीखने का मौका नहीं मिलेगा… हिन्दी की महक, मिठास और अंदाज़ तो जुदा हैं ही, इसकी पहुंच और संसार भी इतना बड़ा है कि इसमें गोता नहीं लगाया, तो भारतीय जीवनशैली का रस नहीं लिया जा सकेगा…
इरफान खान की शानदार अदाकारी और फिल्म का विषय यथार्थ के इतने करीब हैं कि बच्चे के स्कूली दाखिले की जद्दोजहद फिल्मी नहीं, असली लगती है… दाखिला या इम्तिहान बच्चे का नहीं, मां-बाप का है… एक ऐसी दुनिया में कदम रखने के लिए, जहां के ताने-बाने में स्टेटस, क्लास और शैक्षणिक पृष्ठभूमि कूट-कूटकर भरी है… जिसे पाने की हसरत में एक खाता-पीता, धनाढ्य परिवार गरीबों की बस्ती में रहने को तैयार हो जाता है… वहां की दुनिया के रंग गंदे भले हों, लेकिन गहरे और खुशी देने वाले हैं… वहां दिखावे का आवरण नहीं है, सहजता और समरसता है, क्योंकि गरीबों की बस्ती में एक-दूसरे को हैसियत की डोर नहीं बांधती… वे अमीरों की तरह एक दूसरे के साथ खड़े होने से पहले यह तकाज़ा नहीं करते कि ‘दूसरे की कमीज़ कितनी उजली है…’
जाते-जाते ‘हिन्दी मीडियम’ उस अंतरात्मा को छूती है, जिसे हम आज की दुनिया में भुला चुके हैं… एक गरीब बच्चे का हक छीनने की छटपटाहट और एकाएक इंसानियत जागने का सीन नाटकीय हो सकता है, क्योंकि आज की खुदगर्ज़ दुनिया में इस आदर्श की उम्मीद बेमानी है… दूसरे का हक छीन अपनी दुनिया संवार लेने की आदत को जानदार तरीके से सामने रखकर एक बार के लिए ही सही, आडंबरों और पत्थरदिल दुनिया को झकझोरने की कोशिश ज़रूर की गई है… यह आपकी संवेदनशीलता है कि आप इससे कितना प्रभावित होते हैं… यह कहानी फिल्मी सही, लेकिन असली-सी लगती है… संदेश दे जाती है कि मीडियम हिन्दी हो या अंग्रेज़ी, स्थायी तरक्की जड़ों से कटकर कभी नहीं होती और असली तरक्की के लिए किसी के अरमानों के बलि मत दीजिए… काश, यह बात सब समझ पाएं…