जब कांशीराम के कहने पर मुलायम सिंह ने सपा बनाई

बहुजन के मिशन और सत्ता के सर्वजन का फ़र्क ही कांशीराम और कुमारी मायावती के बीच का फ़र्क है.

1984 में बनी बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम का नारा था ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.’

लेकिन 2003 में पूरी तरह से कुमारी मायावती के हाथों में बहुजन समाज पार्टी की कमान आने के बाद वह नारा बदल गया.

नया नारा लगा, ‘जिसकी जितनी तैयारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.’

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कांशीराम और मायावती की बहुजन समाज पार्टी में फ़र्क को बहुजन आंदोलन के कार्यकर्ता एआर अकेला कई नारों के जरिये बताते हैं.

कांशीराम के लिए वे दिवारों पर नारे लिखते थे- ‘जो बहुजन की बात करेगा, वह दिल्ली पर राज करेगा.’ कुमारी मायावती के सुप्रीमो बनने के बाद नारा आया- ‘सर्वजन के सम्मान में , बीएसपी मैदान में.’

बहुजन, जो मिशन था, वो पोस्टर बन गया और सर्वजन सत्ता का उद्देश्य हो गया.

बसपा की बेवसाईट पर पार्टी के संस्थापक कांशीराम के बहुजन समाज के मिशन को सत्ता की बीएसपी में तब्दील होने के कारणों का पता चलता है.

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बेवसाईट पर पार्टी का उद्देश्य, सदियों से सताई जाने वाली 85 प्रतिशत दलितों,पिछड़ों, अदिवासियों, अल्पसंख्यकों के सामाजिक हक-हकूक को हासिल करना और आर्थिक रूप से उन्हें मजबूत करना बताया गया है.

कांशीराम ने पार्टी के गठन के साथ ‘बहुजन समाज’ का एक पुख़्ता आधार तैयार किया. वे देश के विभिन्न हिस्सों में घूम घूमकर 1984 से लगातार केवल पिछड़े, दलितों, आदिवासियों व अल्पसंख्यकों के बीच अभियान चलाते रहे.

लेकिन बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती लिखती है कि वे बहुजन समाज की आर्थिक और सामाजिक विकास के साथ हिन्दू उंची जाति के गरीबों, छोटे-मझोले किसानों, व्यापारियों और दूसरे करोबारी लोगों के हितों के लिए भी प्रतिबद्ध हैं.

मायावाती इस प्रचार को झूठ का पुलिंदा और मनुवादियों की शरारत बताती हैं कि बीएसपी केवल दलितों के हितों में सोचती है और उंची जाति के हिन्दुओं और समाज के दूसरे समुदायों की विरोधी है.

राजनीतिक दल के रूप में बहुजन समाज पार्टी से पहले कांशीराम ने फिछड़े, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और कर्मचारियों के बीच डीएस4 के जरिये अपना आधार बनाया.

अपने समाचार पत्र ‘बहुजन संगठक’ के 5 अप्रैल 1982 के अंक में वे बताते हैं कि उन्होंने जब अम्बेडकर के आंदोलन का अध्ययन किया तो ये पाया कि बहुजन समाज इसीलिए अपने बलबूते कोई आंदोलन नहीं चला पाता है क्योंकि उसकी गैर राजनीतिक जड़ें मजबूत नहीं हैं.

इसीलिए उन्होंने सोचा कि एक ऐसा संगठन बनाना ज़रूरी है जो कि दलित शोषित समाज की गैर राजनीतिक जड़ें मजबूत कर सके. यह रास्ता उत्तर प्रदेश में कामयाबी की मंजिलें हासिल करने लगा.

1991 में इटावा से उपचुनाव जीतने के बाद उन्होंने स्पष्ट किया कि चुनावी राजनीति में नये समीकरण का प्रारम्भ हो गया है.

कांशी राम ने एक साक्षात्कार में कहा कि यदि मुलायम सिंह से वे हाथ मिला लें तो उत्तर प्रदेश से सभी दलों का सुपड़ा साफ हो जाएगा.

मुलायम सिंह को उन्होंने केवल इसीलिए चुना क्योंकि वही बहुजन समाज के मिशन का हिस्सा था. इसी इंटरव्यू को पढ़ने के बाद मुलायम सिंह यादव दिल्ली में कांशीराम से मिलने उनके निवास पर गए थे.

उस मुलाक़ात में कांशीराम ने नये समीकरण के लिए मुलायम सिंह को पहले अपनी पार्टी बनाने की सलाह दी और 1992 में मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी का गठन किया.

1993 में समाजवादी पार्टी ने 256 सीटों पर और बहुजन समाज पार्टी ने 164 सीटों पर विधानसभा के लिए चुनाव लड़ा और पहली बार उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज की सरकार बनाने में कामयाबी भी हासिल कर ली.

उस वक़्त एक तरफ बाबरी मस्जिद को ढाहने और उसकी जगह पर मंदिर बनाने के लिए अड़े भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता ‘जय श्री राम’ का नारा लगा रहे थे.

लेकिन गठबंधन की सरकार से उत्साहित होकर बहुजन कार्यकर्ताओं ने नारा लगाया- ‘मिले मुलायम-कांशीराम , हवा हो गए जय श्रीराम.’

1991 के बाद भारतीय राजनीति में संसदीय समीकरणों का एक नया दौर शुरू हुआ. इसी बीच बहुजन समाज पार्टी में मायावती का प्रादुर्भाव हो चुका था.

मायावती बहुजन समाज का आधार बनाने के कांशीराम के अभियान की हिस्सा नहीं थीं. ये बात इनके समाचार पत्र ‘बहुजन संगठक’ में उनकी सभाओं की रिपोर्टिंग से भी जानकारी मिलती है.

उसमें छपने वाली रिपोर्टिंग में सक्रिय कार्यकर्ताओं के नाम भी छापे जाते थे. उनमें मायावती का नाम कहीं नहीं मिलता है.

कांशीराम के साथ मुलायम सिंह का ये समझौता हुआ कि उन्हें लोकसभा के चुनाव में साठ प्रतिशत सीटों की हिस्सेदारी मिलेगी.

कांशीराम का इरादा बहुजन मिशन के साथ दिल्ली की गद्दी तक पहुंचना था. लेकिन विधानसभा के भीतर एक दरार मायावती के मुख्यमंत्री बनने और भाजपा के समर्थन वापस लेने के घटनाक्रमों के बीच पड़ गई.

लेकिन ज़मीनी हक़ीकत मुलायम-कांशीराम के स्वभाविक गठबंधन के विभाजन को मानने के लिए तैयार नहीं थी.

इसके उदाहरण में यह तथ्य है कि 1996 में फिर बहुजन समाज पार्टी 67 सीटों पर जीती और सपा भी पुरानी संख्या के साथ विधानसभा में पहुंची.

कांशीराम अपने 85-15 के मिशन को लेकर पक्का इरादा रखते थे. उनके सामने पच्चासी प्रतिशत की हिस्सेदारी वाली सत्ता हासिल करना था.

लेकिन मायावती ने बहुजन की जगह पर सर्वजन को राजनीतिक उद्देश्य बनाया. उन्हें बहुजन का नारा अपनी राजनीतिक उन्नति के लिए बाधा लगने लगी.

बीएसपी की बेवसाईट पर वे उंची जाति के सदस्यों को पार्टी में तरजीह देने के बारे में भारी सफाई देती नजर आती हैं.

उन्होंने भरी सभा में सतीश मिश्रा को अपने नेतृत्व वाली पार्टी का महासचिव बनाने की घोषणा की और 2007 के चुनाव में इस हेंडिग को देखकर काफी खुश हुईं कि दलित-ब्राह्मण गठजोड़ से बीएसपी ने पांच वर्षों के लिए सरकार बना ली है.

उन्होंने सरकार के बनने के बाद जो पहली घोषणा की उसमें एक यह था कि सर्वजन की सरकार के अधिकारी बहुजन के कार्यकर्ताओं के दबाव की परवाह नहीं करें.

मायावती बहुजन समाज के मिशन से दूर होने और सत्ता के लिए सर्वजन की तलाश करने में इतनी मशगूल हुईं कि बहुजन समाज पार्टी के मिशन के संगी साथी बिछुड़ते चले गए.

दलित मानी जाने वाली जातियां भी उनसे अलग होती चली गईं. वे चुनाव में जीत के लायक वोटों के बीच समीकरण को प्रमुख मानने लगीं.

2017 के चुनाव में वे बार बार ये घोषणा करती पाई गईं कि अब वे नई मूर्तियां नहीं लगवाएंगी.

सर्वजन की राजनीति 1991 के बहुजन राजनीति के दौर से काफी पीछे खड़ी है.

बहुजन राजनीति तो दूर, दलित राजनीति को बचाए रखने की चुनौती खड़ी दिखती है. सामाजिक न्याय के राजनीति मिशन को छोड़कर क़ामयाब नहीं हो सकती है.

2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजे संसदीय मंचों पर 1993 के समीकरण को स्वभाविक बता रहे हैं.

Source: hindi.oneindia.com

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