उत्तराखण्ड को अदद क्षेत्रीय दल की दरकार, कांग्रेस से अलग हुए नेताओं ने भी नही की कोशिश
उत्तराखण्ड राज्य को बने हुए 17 वर्ष हो गए हैं लेकिन अभी भी इस राज्य की जनता विकास की और टकटकी लगाये इन्तजार में बैठी है। कांग्रेस बीजेपी ने बारी बारी से सत्ता सुख का आनन्द लिए है तो कुछ देश प्रदेश से आये हुए बीजेपी कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को भी इनके आकाओं ने एडजस्ट किया है। 2017 के विधान सभा चुनाव में राज्य की जनता ने बीजेपी को प्रचण्ड बहुमत से जीत दिलाई और आशा के अनुरूप बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व ने त्रिवेन्द्र सिंह रावत को सीएम पद से नवाज कर सरकार गठन कर दी। कांग्रेस ने बीजेपी पर आरोप लगाये की EVM में छेड़छाड़ कर बीजेपी ने सत्ता हासिल की है लेकिन कांग्रेसियों की समझ में ये बात नही आई की बीजेपी EVM छेड़छाड़ से नही बल्कि वो कांग्रेस की राज्य विरोधी नीती के कारण जीती वरना EVM से मतदान तो पंजाब में भी हुवा जहां बीजेपी 3 सीटों पर सिमट गयी।
सवाल ये उठता है कि राज्य की जनता ने उत्तराखंड में बीजेपी की अंतरिम सरकार 2000 में और 2007-2012 में देखने का बावजूद भी 2017 में बीजेपी को प्रचण्ड बहुमत क्यों दिया ? पीएम मोदी का फैक्टर होता तो पंजाब में भी बीजेपी जीत जाती , लेकिन पंजाब में कांग्रेस बहुमत में आ गयी। ऐंसा उत्तराखण्ड में भी हुवा कि सिटिंग गवर्नमेंट के खिलाफ ही वोटिंग होती रही है। 2002 , 2007, 2012 और अब 2017 चुनाव प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। और शायद 2022 में कांग्रेस की सरकार आजाए।
प्रश्न यह उठता है कि जब जनता ये जानती है कि दोनों पार्टियों ने हमेशा चुनाव के दौरान लंबे लम्बे वायदे किये और वास्तव में धरातल पर कोई काम नही किया उलटे राज्य को अरबों रूपये के कर्ज में डुबो दिया तो फिर इनको बार सत्ता क्यों दी जा रही है एकमात्र क्षेत्रीय दल भी इस चुनाव में लगभग हासिये पर चला गया।
इस विश्लेषण का जबाब है राज्य में अपना कोई नेता या दल नहीं है जिसके ऊपर राज्य कि जनता भरोसा कर सके और मजबूरी में उनको बारी बारी से कांग्रेस बीजेपी को ही आजमाना पड़ता है कि क्या पता इस बार ये कुछ अच्छा कर दें।
मार्च 2016 में कांग्रेस की बगावत से इसकी उम्मीद बंध गयी थी कि अब राज्य को एक ससक्त क्षेत्रीय दल हरक सिंह रावत के नेतृत्व में मिल जाएगा लेकिन कांग्रेस के इस खेमे ने भी बीजेपी में जाकर इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया, जबकि सतपाल महाराज विजय बहुगुणा हरक सिंह रावत जैंसे कद्दावर नेता अपने दम पर एक क्षेत्रीय दल का गठन करके अपने हिसाब से राज्य के जनहित की सरकार चला सकते थे। जिसको दिल्ली या नागपुर के आदेश के बिना कार्य करने की आजादी होती और उत्तराखण्ड के हितों में फैसले लेने की सूझबूझ बनी रहती।