रंगांधता के लक्षण दिखे, तुरंत इलाज करें
लाल, पीला, हरा और न जाने कितने रंग, यह सभी हमारे जीवन का एक अटूट हिस्सा हैं। मानव जीवन में रंगों का विशेष महत्व होता है। हर रंग के साथ एक विश्वास जुड़ा होता है और प्रत्येक रंग किसी न किसी भाव विशेष का सूचक होता है। हममें से बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो रंगों को पहचान नहीं पाते, यही रोग कलर ब्लाइंडनेस या वर्णांधता कहलाता है। रंगों को पहचान न पाना अपने आप में एक बड़ी समस्या है। सौन्दर्य तथा फैशन उद्योग में काम करने वाले लोगों की कार्यक्षमता तो रंगों को पहचानने की शक्ति पर ही टिकी होती है। ड्राइवर, वायुयान चालक, ट्रेन ड्राइवर, नेवीगेटर आदि के लिए रंगों को सही-सही पहचानना और भी जरूरी है क्योंकि इन सभी लोगों के साथ हजारों.लाखों की सुरक्षा का सवाल जुड़ा होता है। विभिन्न नौकरियों में शारीरिक परीक्षण के दौरान रंगांधता का परीक्षण होने वाली दुर्घटना की आशंका को कम करने के लिए ही किया जाता है। मानव नेत्र में दृष्टिपटल पर दो प्रकार के फोटोसेंसेटिव रिसेप्टर होते हैं. राड्स और कोन्स। इसमें राड्स मंद प्रकाश में देखने में मदद करता है जबकि कोन्स के द्वारा हम सामान्य प्रकाश में देखते हैं। यही कोन्स रंगों की पहचान भी करता है। रंगों की पहचान केवल मध्यम तथा पूर्ण प्रकाश में ही संभव है। भरपूर प्रकाश में देखने को फोटोपिक विजन कहते हैं। रेटिना में राड्स और कोन्स के अलावा आप्टिक नर्व भी होती है। इस नर्व का निर्माण असंख्य स्नायु तंतुओं के आपस में मिलने से होता है। संदेश को मस्तिष्क के आक्सीपिटल लोव, जहां रेटिना पर पड़े प्रतिबिम्ब का विश्लेषण होता है, तक पहुंचाने का कार्य भी इसी नर्व के द्वारा ही किया जाता है। मानव रंगों को कैसे पहचानता है? यह अभी तक एक प्रश्न ही है। अरस्तू का मानना था कि अंधकार और रोशनी के मिलन से रंग उत्पन्न होते हैं। परन्तु इसमें रंगों की पहचान का सवाल उनकी मान्यता की दार्शिनक दुरुहता के नीचे दब गया। रंगों की पहचान के बारे में यंग और हेलमोंडस द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त ही सर्वमान्य हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार रेटिना में तीन प्रकार के कोन्स होते हैं। एक कोन एक ही मूल रंग से प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए यदि केवल लाल रंग दिखाई दे रहा है तो केवल लाल रंग से प्रभावित होने वाला कोन ही हरकत करेगा। यदि दो प्रकार के कोन्स हरकत करेंगे तो मिश्रित रंग देखे जा सकते हैं। सफेद रंग की पहचान तभी हो पाती है जबकि तीन प्रकार के कोन्स बराबर मात्रा में प्रभावित होंगे। वास्तव में प्रकाश की अलग.अलग तरंगों में अंतर कर पाने की क्षमता से ही रंगों की उत्पत्ति होती है। कोई मनुष्य रंगांध तभी होता है जबकि उसकी आंखें विभिन्न प्रकाश तरंगों में अंतर नहीं कर पातीं। आंकड़े बताते हैं कि यूरोप में लगभग दस प्रतिशत तथा भारत में लगभग पांच प्रतिशत लोग इस रोग से पीड़ित हैं। यह भी देखा गया है कि ज्यादातर शिक्षित और सुसभ्य समाज के लोग ही इस रोग से ग्रसित होते हैं। उच्च वर्ग के लोगों में इस रोग की संभावना अन्य वर्गों की अपेक्षा ज्यादा क्यों है यह प्रश्न भी अभी तक रहस्य बना हुआ है।
आंखों और शरीर के दूसरों हिस्सों में होने वाले रोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रंगांधता के कारण हो सकते हैं। मोतिया बिंद, ग्लोकोमा, पिकमेंटोसा, आप्टिकनर्व के रोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप तथा विभिन्न स्नायु सम्बंधी रोग रंगांधंता की सम्भावना को बढ़ा देते हैं।
कुछ दवाओं का शरीर के विभिन्न अंगों पर कुप्रभाव पड़ता है। आंखें भी इससे अछूती नहीं हैं। आंखों पर पड़ने वाले कुप्रभाव में रंगांधता का प्रतिशत कितना होता है यह तो निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता परन्तु दवाइयों से पड़ने वाला कुप्रभाव रंगांधता की आशंका को बढ़ा अवश्य देता है। इसलिए दवा बनाने वाली कम्पनियों और चिकित्सकों की समय.समय पर यह निर्देश दिया जाता है कि वे इन विशेष दवाइयों को ध्यान में रखें जिनके प्रयोग से आंखों पर कुप्रभाव पड़ता है। क्षय रोग, कोढ़, उच्च रक्तचाप, गुर्दे का रोग, जोड़ों के दर्द, हृदय रोग और विभिन्न मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों के कलर ब्लाइंड होने की आशंका अधिक होती है क्योंकि इन रोगों के निदान के लिए ली जाने वाली दवाओं का स्नायु तंतुओं पर कुप्रभाव पड़ता है। इस प्रकार विभिन्न रोग तथा उनसे पैदा हुई जटिलताओं के निदान के लिए रंगांधता के परीक्षण का सहारा लिया जा सकता है। बढ़ती हुई उम्र के साथ.साथ आंखों के प्यूपिल का सिकुड़ना, लैंस का पीलापन और मैकुला में जमाव जैसी समस्याएं शुरू हो जाती हैं, इससे भी रंगांधता हो सकती है।