देश में कम ही है ऐसे राजनेता

चेन्नई एजेन्सी। राजनेताओं पर अविश्वास के दौर में बेहद कम ऐसे नेता हुए हैं जिनके लिए उनके समर्थक जान देने को भी तैयार रहते हैं, वह भी एक, दो या पांच साल के लिए ही नहीं, बल्कि तीन दशकों से ज्यादे समय तक! तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता भी उन में से एक रही हैं, जो कई दिनों से अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूलने के बाद अपने नश्वर शरीर को छोड़ गयीं। इलाज करा रहीं जयललिता के स्वास्थ्य के बारे में सकारात्मक उम्मीद लगाकर, हर एक मेडिकल बुलेटिन पर उनके समर्थक अब तक अस्पताल के बाहर डटे हुए थे, तो पूरे तमिलनाडु राज्य में उनके समर्थक अब शोक में डूब गए हैं। इस राजनेत्री जयललिता के बीमार होने और हालत नाजुक होने की खबर पहले ही एक राष्ट्रीय खबर बन चुकी थी और जब तक वह बीमार रहीं, तब से लगातार उनके गुजरने की आशंका, कुशंका से जयललिता के समर्थक बिलखते रहे। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत देश के कई दिग्गज नेताओं ने जयललिता के निधन पर दुख जताया है तो कानून व्यवस्था की स्थिति नियंत्रण से बाहर न हो इसके लिए पूरे राज्य में हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया है। बेहद पेचीदा सवाल है कि, आखिर ऐसा क्या खास है अम्मा में जो उनके समर्थक उन्हें इस कदर चाहते हैं? आखिर क्यों इस राजनेत्री को चाहने वाले उनके समर्थक, उनके जीवनकाल में जय ‘ललिता’, जय ‘अम्मा’ के नारे लगाते रहे हैं? इसका सीधा जवाब उनके तेवर और राजनीतिक फैसलों में ही छिपा हुआ है। सत्ता में आने पर 21 जून, 2001 को जयललिता ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी करुणानिधि को रात दो बजे घसीट कर जेल में बंद करवा दिया था, वह भी कैमरे के सामने, जिस पर पूरे देश में काफी हंगामा हुआ। 2001 में ही जयललिता ने बड़ा फैसला लेते हुए तमिलनाडु में लॉटरी के टिकट पर पाबंदी लगा दी थी, तो मंदिरों में जानवरों की बलि पर भी उसी साल रोक लगा दी थी, लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद उन्हें अपना यह फैसला बदलने को मजबूर होना पड़ा था। इतना ही नहीं, हड़ताल पर जाने वाले कर्मचारियों पर 2001 में सख्त कार्रवाई करते हुए जयललिता ने दो लाख हड़ताली कर्मचारियों को एक साथ नौकरी से निकाल दिया था। समझा जा सकता है कि ऐसे भारी भरकम और अलोकप्रियता की ओर धकेलने वाले फैसले जयललिता ही ले सकती थीं, किन्तु जयललिता तो जयललिता थीं, उन्हें जो निर्णय लेना था, उन्होंने लिया और अपने तेवर में लिया। उनके कई फैसले जनता के हित से सीधे जुड़े रहे, जैसे प्रदेश में पहली बार महिला थाने खुलवाने का श्रेय भी जयललिता को जाता है। उन्होंने महिला थाने खुलवाए और वहां सिर्फ महिला पुलिसकर्मियों की तैनाती भी की। ऐसे ही, 1992 में लड़कियों की सुरक्षा के लिए ‘क्रैडल बेबी स्कीम’ शुरू की थी, ताकि अनाथ और बेसहारा बच्चियों को खुशहाल जीवन मिल सके। ऐसे ही, 2013 में जयललिता ने गरीब लोगों को रियायती दर पर खाना उपलब्ध कराने के लिए ‘अम्मा कैंटीन’ की शुरुआत की, जिसकी अर्थशास्त्रियों ने खूब आलोचना की, पर ‘अम्मा’ ने जो ठान लिया, सो ठान लिया। इस कैंटीन में एक रुपए में इडली, तीन रुपए में दो चपाती, पांच रुपए में एक प्लेट ‘सांभर-लेमन राइस’ या ‘कर्ड-राइस’ दिया जाता है।  जनहितकारी फैसलों में, 2016 में जयललिता ने शराबबंदी के अपने चुनावी वादे को निभाते हुए पहले चरण में राज्य में शराब की 500 रीटेल शॉप बंद करने का बड़ा फैसला लिया था, जिस पर खूब होहल्ला भी मचा। राजनीतिक विश्लेषक अपने आंकलनों में उन्हें जो कहें, किन्तु हकीकत यही है कि उनके समर्थक उन्हें उनके तेवर और फैसलों के कारण ही ‘अम्मा’ कहते रहे, और उनका दर्जा ‘अम्मा’ का इसीलिए आजीवन बना भी रहा। राजनीतिक जीवन से पूर्व के उनके जीवन के बारे में बात करें तो, 24 फरवरी 1948 को एक तमिल परिवार में जन्मे जयललिता के दादा एक सर्जन थे, तो 2 वर्ष की छोटी अवस्था में ही उन्हें अपने पिता का स्वर्गवास झेलना पड़ा था। इसके बाद जयललिता की मां उन्हें बेंगलुरु लेकर चली गईं और वहीं से जयललिता ने तमिल सिनेमा में काम करना शुरू कर दिया था। ‘एपिसोल’ नाम की अंग्रेजी फिल्म में काम करने के बाद 15 साल की उम्र में जयललिता कन्नड़ फिल्मों में मुख्य हीरोइन की भूमिकाएं करने लगी थीं और अभिनेता शिवाजी गणेशन के साथ उन्होंने खूब नाम भी कमाया। इसी कड़ी में, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ फिल्मों के अलावा एक हिंदी फिल्म में भी जयललिता ने काम किया था और सिनेमा के बाद राजनीतिक सफर किस तरह उन्हें लोकप्रियता के मुकाम तक ले आया यह हम सभी जानते हैं।

एमजी रामचंद्रन के सहयोग से जयललिता राजनीति में आईं थी और उनकी मौत के बाद उनकी विरासत पर जयललिता ने कब्ज़ा जमा लिया था। बताते चलें कि 1983 में एमजीआर ने जयललिता को पार्टी का सेक्रेटरी बनाया, तो बाद में राज्यसभा के लिए भी मनोनीत किया था। तत्पश्चात जयललिता 1991 में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं और फिर यह सिलसिला लगातार चलता रहा। विवादों की बात करें तो, आय से अधिक संपत्ति के मामले में उन्हें अदालत द्वारा सजा भी दी गई, किन्तु जनता में इससे उनकी लोकप्रियता से कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ा। उनके जीवन के पन्नों को पलटने पर यह बात बेहद दिलचस्प नज़र आती है कि बचपन से ही जयललिता एक वकील बनना चाहती थीं, लेकिन किस्मत उन्हें फिल्मों में ले आयी। लगभग 140 फिल्में करने के बाद राजनीति में 8 बार विधानसभा का चुनाव उन्होंने लड़ा और लोकप्रियता के आकाश में ध्रुव तारे के समान चमकती रहीं।
ऐसा भी नहीं रहा है कि जयललिता का सफर इतना आसान ही था, बल्कि 25 मार्च 1989 को तमिलनाडु विधानसभा में जिस प्रकार डीएमके और अन्नाद्रमुक के सदस्यों के बीच हाथापाई हुई और जयललिता के साथ जोर जबरदस्ती की गई, उसने जयललिता के प्रति जनता में व्यापक सहानुभूति पैदा की थी। तब अपनी फटी साड़ी के साथ जयललिता विधानसभा से बाहर आई थीं और लोगों ने इस घटना के लिए सत्तापक्ष को खूब कोसा था। यही वह दिन था जब जयललिता ने विधानसभा से निकलते हुए कहा था कि वह मुख्यमंत्री बन कर ही सदन में आएँगी, वरना नहीं! उनकी यह प्रतिज्ञा 1991 में पूरी हुई, जब राजीव गांधी की हत्या के बाद जयललिता ने कांग्रेस के साथ चुनावी समझौता किया और 234 में से 225 सीटें जीत लीं।
उन्हें तब भी संघर्ष करना पड़ा था, जब एमजीआर की मृत्यु के बाद उनके शव के पास जयललिता को नहीं आने दिया जा रहा था, किन्तु बेहद धैर्य से उन्होंने अपना राजनीतिक सफर जारी रखा और इसीलिए अन्नाद्रमुक के मंत्री, विधायक, सांसद और उनके समर्थक उन्हें ‘अम्मा’ और ‘पुराची तलाई’ यानी ‘क्रांतिकारी नेता’ के नाम से भी पुकारते हैं। निश्चित रूप से तमिलनाडु की राजनीति में जयललिता ने अपनी छवि बेहद बड़ी बना ली थीं, अपने गुरु, मार्गदर्शक एमजीआर से भी आगे! प्रशासनिक तौर पर जयललिता के फैसलों को लोगों ने खूब पसंद किया और सुनामी जैसे प्राकृतिक आपदा में उनके प्रशासन की आज तक मिसाल दी जाती है। हालांकि चेन्नई में बाढ़ जैसी स्थितियों से निपटने में वह विफल भी साबित हुईं, तो उन पर भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ ज़िद्दी और अक्खड़ होने के आरोप भी लगाए गए, किंतु हकीकत यही थी कि वह एक जन नेता के रूप में जनता के सामने हमेशा खड़ी रहीं। उनके समर्थक उन्हें हर स्थिति में सर आंखों पर बिठाते रहे। अब वह हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनकी विरासत अन्नाद्रमुक के रूप में तमिलनाडु की जनता के सामने है। उनकी इस विरासत को अन्नाद्रमुक के नेता आगे ले जाते हैं अथवा ‘एक नेता’ की छवि पर आश्रित यह पार्टी लड़खड़ा जाती है, यह अवश्य देखने वाली बात होगी। जो भी हो, किन्तु अम्मा का स्थान इतिहास और तमिलनाडु के लोगों के मन-मस्तिष्क में लंबे समय तक सुरक्षित रहने वाला है, इस बात में दो राय नहीं!

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