कोरोना संक्रमण से बचाने के लिए कदम बढ़े, मगर मंजिल दूर

देहरादून । प्रकृति पर किसी का वश नहीं, मगर उसके साथ तालमेल बैठाकर चलने में ही समझदारी है। इस लिहाज से आपदा की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में आपदा न्यूनीकरण के लिए काफी कुछ हुआ है, लेकिन चुनौतियों से पार पाने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है। विशेषकर, पर्वतीय क्षेत्र में चुनौतियों का अंबार है। आपदा आने पर सबसे बड़ी चुनौती वहां पहुंचने और सूचनाओं के आदान-प्रदान की है। इनसे पार पाने के लिए ठोस कदम उठाने के साथ ही जनजागरण पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।
समूचा उत्तराखंड आपदा की दृष्टि से संवेदनशील है। भूकंपीय दृष्टि से राज्य जोन-चार व पांच में है तो वर्षाकाल में अतिवृष्टि, भूस्खलन, बादल फटने जैसी आपदाएं हर साल ही जान-माल के नुकसान का सबब बनती आ रही हैं। लगातार आपदाओं के चलते पर्वतीय क्षेत्रों में गांवों के लिए खतरा बढ़ रहा है। इस सबको देखते हुए ही राज्य में आपदा प्रबंधन मंत्रालय गठित किया गया, ताकि आपदा न्यूनीकरण की दिशा में कदम उठाए जा सकें।
इस नजरिये से देखें तो 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद सभी जिलों में राज्य आपदा प्रतिवादन बल (एसडीआरएफ) की तैनाती की जा चुकी है। तहसील स्तर पर सैटेलाइट फोन दिए जा चुके हैं। खोज और बचाव कार्यों के लिए त्वरित प्रतिक्रिया प्रणाली (आइआरएस) लागू है। युवक मंगल दलों को प्रशिक्षित भी किया गया है। बावजूद इसके, आपदा आने के बाद बचाव एवं राहत कार्यों में हाथ-पांव फूल जाते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों का आलम ये है कि आपदा आने पर सूचनाओं का आदान-प्रदान तक नहीं हो पाता। साथ ही दुरुह क्षेत्रों तक पहुंच भी बड़ी चुनौती है।

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