साहित्यकार वाल्मीकि बन जाता, पत्रकार नारद की तरह भटकता रहता
लखनऊ । मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि लेखन समाज की जरूरत के अनुसार होना चाहिए। ऐसा लेखन ही समाज, संस्कृति और राष्ट्र को संबल देता है। जब भी इस तरह का लेखन हुआ तो वह इतिहास बन गया। वाल्मीकि रामायण इसका प्रमाण है।
मुख्यमंत्री ने कहा कि विजुअल और सोशल मीडिया के बढ़ते वर्चस्व के कारण साहित्य के क्षेत्र में चुनौतियां बढ़ीं हैं, पर इसको लेकर निराश होने के बजाय और बेहतर करने की जरूरत है। हिंदी को संवाद की भाषा बनाएं। पूरे देश में यह बोली और समझी जाती है। योगी ने कहा कि साहित्यकार और पत्रकार दोनों की भूमिका अहम है। साहित्यकार का नजरिया रचनात्मक होता है जबकि पत्रकार कमियां खोजता है। रचनात्मक नजरिये वाला वाल्मीकि बन जाता है और कमियां खोजने वाला नारद की तरह भटकता रहता है।
चयन पहली बार पारदर्शी : हृदय नारायण
विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित ने कहा कि पहली बार बिना किसी पैरवी के साहित्यकारों का चयन हुआ। साहित्यकारों और कवियों का अपना सौंदर्यबोध होता है। नेता में वह कौन सा सौंदर्यबोध देखते हैं कि उसे अपना पात्र बनाते हैं। इसकी वजह शायद नेताओं में किसी का आदर्श न होना है। योगी आदित्यनाथ ने इस संकट को दूर कर दिया है।
वर्चस्व अब भी अंग्रेजी का ही : आनंद प्रकाश
भारत-भारती पुरस्कार से सम्मानित आनंद प्रकाश दीक्षित ने कहा कि हिंदी राजभाषा तो है, पर वर्चस्व अब भी अंग्रेजी का ही है। हिंदी की किताबों में भी कोट अंग्रेजी के होते हैं। शोध की स्थिति दयनीय है। उन्होंने हिंदी लेखन को समृद्ध करने के साथ त्रिभाषा पाठ्यक्रम को लागू करने, दक्षिण भारत में हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाने की सलाह दी।
पुरस्कारों की संख्या और राशि बढ़ायी जाये : प्रो.सदानंद गुप्ता
हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष प्रो. सदानंद गुप्त ने पुरस्कारों की संख्या और इसके तहत मिलने वाली राशि बढ़ाने की मांग की। उन्होंने भूषण पुरस्कारों की संख्या 10 से 20 और विश्वविद्यालय स्तरीय पुरस्कारों की धनराशि बढ़ाकर एक लाख रुपये और नामित पुरस्कारों की धनराशि 75 हजार रुपये करने की मांग की। कार्यक्रम में प्रमुख सचिव, भाषा जितेंद्र कुमार, संस्थान के निदेशक शिशिर और अन्य लोग मौजूद थे।
पत्रकारिता में शुभ लक्षण है ढोंग के विरुद्ध जागरूकता : राजनाथ
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हाथों हिंदी संस्थान के पत्रकारिता में भूषण सम्मान से सुशोभित राजनाथ सिंह सूर्य जब बीते पांच दशकों की पत्रकारिता पर नजर डालते हैं तो उन्हें कई अच्छे-बुरे बदलाव और उतार-चढ़ाव के दौर नजर आते हैं। बढ़ती व्यावसायिकता उन्हें चिंतित करती है तो पत्रकारिता में ढोंग के विरुद्ध बढ़ी जागरूकता एक शुभ लक्षण के तौर पर उन्हें संतोष भी देती है। वह बताते हैं कि राजनीति छोड़कर वर्ष 1962 में जब वह पत्रकारिता में आए थे, तब स्वतंत्रता संग्राम में जनता को जागृत करने वाले पत्रकार अवकाश ग्रहण कर रहे थे और माक्र्सवादी या सेक्युलर पत्रकारों का वर्चस्व बढ़ रहा था।
उस समय संघ के किसी स्वयंसेवक के लिए पत्रकारिता में पैठ बनाना भी आसान नहीं था। यह संघर्ष उनके हिस्से में आया। उस दौर में, उसके बाद और वर्तमान में सबसे बड़ा फर्क यह आया कि तब विचार प्रधान पत्रकारिता थी और अब यह अभियान प्रधान हो गई है। एक और बड़ा फर्क यह आया कि सेक्युलरवाद के नाम पर 30-40 साल से जो ढोंग छाता जा रहा था, इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया ने इसका पर्दाफाश करना शुरू कर दिया।
इसी दौरान पत्रकारिता में घुले तकनीकी विकास से तात्कालिकता को भी बल मिला। पहले जहां जिलों के समाचार एक सप्ताह बाद आने को भी विलंब नहीं माना जाता था, वहीं अब सुदूर गांव में घटने वाली कोई घटना इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया के जरिये तत्काल लोगों तक पहुंच जाती है। हालांकि इसका दुष्प्रभाव भी सामने आ रहा है कि प्रतिबद्धता से हटकर पत्रकारिता पर व्यावसायिकता हावी होती जा रही है।