केन्द्र सरकार अपने वायदे और संकल्प से कोसों दूर
कर्नाटक उप चुनाव के बाद भले ही भाजपा प्रतिक्रिया कुछ दे रही हो लेकिन संकेत ठीक नही है। नोट बंदी, बेरोजगारी, किसानों की अनदेखी जैसे तमाम अहम मुद्दे है जिन पर केन्द्र सरकार अपने वायदे और संकल्प से कोसों दूर है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से अभी तक 30 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं। भाजपा लगातार अपनी जीती हुई सीटों को एक-एक करके हारती जा रही है। पाॅच राज्यों के विधानसभा चुनाव भी इस बाॅत का संकेत है कि भाजपा जनता से जुड़े मुद्दों से भटक गई और उसके रणनीतिकार गलत दिशा की चल दिये। नरेंद्र मोदी की अगुआई में 282 सीटों पर कमल खिलाने वाली भाजपा 1984 के बाद के 30 साल में अपने दम पर बहुमत हासिल करने वाली पहली पार्टी बनी थी। 2014 के बाद से 30 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं, जिनमें से 16 सीटें भाजपा के कब्जे में थीं, लेकिन अब इनमें से महज 6 सीटें ही भाजपा बरकरार रख सकी है। पार्टी ने 10 सीटें गंवा दी हैं। यही वजह है कि लोकसभा में उसकी सीटों का आंकड़ा 282 से घटकर 272 रह गया है। कर्नाटक के तीन लोकसभा और दो विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में बीजेपी को तगड़ा झटका लगा है. वहीं, जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन अपना किला बचाने में कामयाब रही है बल्कि बीजेपी के दिग्गज नेता श्रीरामल्लू के गढ़ में जीत हासिल की है। साल 2014 में मोदी सरकार के गठन के बाद से पार्टी को लगातार उपचुनावों में शिकस्त झेलनी पड़ी है। बेल्लारी, शिमोगा और मांड्या लोकसभा सीट पर नतीजे आए हैं। इनमें से बेल्लारी, शिमोगा सीट बीजेपी के कब्जे में थी। जबकि मांड्या सीट जेडीएस के पास थी. मंगलवार को आए उपचुनाव नतीजे में बीएस येदियुरप्पा बेटे बीवाई राघवेंद्र येदियुरप्पा शिमोगा सीट से जीत हासिल कर सके हैं।बेल्लारी लोकसभा सीट से बीजेपी के दिग्गज नेता श्रीरामल्लू सांसद थे, लेकिन विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के बाद उन्होंने लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद हुए उपचुनाव में पार्टी ने उनकी बहन शांता को प्रत्याशी बनाया था उन्हें कांग्रेस उम्मीदवार वीएस उग्रप्पा ने करारी मात दी है। मांड्या लोकसभा से जेडीएस उम्मीदवार एलआर सीवराम्मे गौड़ा ने जीत हासिल की है।बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से अभी तक 30 लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हुए हैं. बीजेपी लगातार अपनी जीती हुई सीटों एक-एक करके हारती जा रही है. नरेंद्र मोदी की अगुवाई में 282 सीटों पर कमल खिलाने वाली बीजेपी 1984 के बाद के 30 साल में अपने दम पर बहुमत हासिल करने वाली पहली पार्टी बनी थी। बेल्लारी- बीजेपी की सीट कांग्रेस ने छीनी,ैराना- बीजेपी की सीट, आरएलडी ने छीनी, गोंदिया- भंडारा- बीजेपी की सीट, एनसीपी ने छीनी, फूलपुर- बीजेपी की सीट, समाजवादी पार्टी ने छीनी, गोरखपुर- बीजेपी की सीट, समाजवादी पार्टी ने छीनी, अलवर- बीजेपी की सीट, कांग्रेस ने छीनी, अजमेर- बीजेपी की सीट, कांग्रेस ने छीनी, गुरदासपुर कांग्रेस की जीती, 2015 में हुए तीन सीटों पर उपचुनाव में रतलाम- बीजेपी की सीट, कांग्रेस ने छीनी थी। इन उपचुनावों पर सभी की निगाहें इसलिए टिकी थीं, क्योंकि इनके नतीजों का असर कांग्रेस और जे.डी.एस. गठबंधन पर भी पड़ेगा। जहां तक भाजपा के लिए इन नतीजों का सवाल है तो कई मायनों में यह भगवा ब्रिगेड के लिए सही नहीं है। इनसे एक बात तो तय हो गई है कि पार्टी गठबंधन से लड़ने की हैसियत नहीं रखती है। यही नहीं, इन नतीजों का असर आगे 5 राज्यों में होने वाले चुनावों पर भी पड़ेगा। मई में हुए चुनावों के दौरान दोनों पार्टियां एक-दूसरे के खिलाफ लड़ी थीं, लेकिन नतीजे आने के बाद गठबंधन कर लिया था। ऐसे में, 2019 चुनाव से पहले गठबंधन की ताकत, आपसी तालमेल और जनता पर असर की परख इन चुनावों में देखने को मिली। गठबंधन के प्रदर्शन से भाजपा के लिए मुश्किल हालात पैदा हो गए हैं। ये नतीजे कर्नाटक की राजनीति के लिहाज से बेहद अहम माने जा रहे हैं। खासकर, उपचुनाव के नतीजों के बाद 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-जे.डी.एस. मजबूत मनोबल के साथ मैदान में उतरेगी, वहीं भाजपा को एक बार फिर से अपने कार्यकर्ताओं में जोश भरना होगा। इन नतीजों से गठबंधन की राजनीति को ताकत मिलने की उम्मीद है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव शुरू हो चुके है। अगले साल लोकसभा चुनाव होंगे। कांग्रेस-जे.डी.एस. का पहले से ही मानना है कि इन राज्यों के चुनावों पर कर्नाटक उपचुनाव का असर पड़ेगा। ऐसे में, मिली जीत गठबंधन के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है। हालाकि इन उप चुनावों के परिणामों ने भाजपा के इस आकलन को गलत साबित कर दिया है। उसे वाकई में गहराई से विश्लेषण करना चाहिए। यदि यह मानकर की उप चुनाव मंें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रचार नही किया और सीट हार गए तो यह सोचना उसके लिए 2019 में बहुत घातक हो सकता है। इन परिणामों ने आगामी चुनाव के लिए भाजपा की चुनौतियों को बढ़ा दिया है। अगर भाजपा यह मान ले कि आम जनता में ही नही बल्कि पार्टी समर्थकों और आम कार्यकर्ता में भाजपा को लेकर गिरावट और उत्साह में कमी आई है। राजनैतिक विश्लेषकों का यह कहना भी गलत नही होगा कि भाजपा के रणनीतिकार पिछले लम्बे अरसे से ठीक वैसी ही गल्ती कर रहे है जैसे की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में हुई थी। अपने मुद्दो से दूर होकर सत्ता ढाॅचे के प्रभाव में उससे लग रहा है कि वह जो कुछ कर रही है वही सबसे बेहतर है। भाजपा के रणनीतिकर यही मान रहे है कि मोदी सरकार ने सामाजिक उत्थान,गरीबों की उन्नति जैसे जितने काम किए उतना काम अब तक कोई सरकार नही कर पाई। अगर ऐसा होता तो उसे इन उपचुनावों में करारी हार का सामना नही करना पड़ता। दूसरे पाॅच राज्यों के उप चुनाव को लेकर जो समीकरण और परिस्थितियाॅ सामने है वह भाजपा के खिलाफ है। यही कारण है कि ऐन लोकसभा चुनाव के सिर पर आते एक बार फिर भाजपा राम मंदिर मुद्दे पर मुखर हो चली है। अगर उसने अब तक की सरकारों में सबसे ज्यादा काम किया है तो उसे एक बार फिर राम मंदिर मुद्दे की तरफ क्यो जाना पड़ रहा है। मोदी और शाह की जोड़ी तो सांप्रदायिक तथा तानाशाही तौर तरीके के रूप में सामने आई और इससे पिछड़े दो सालों में जनता में नाराजगी बढ़ी और उसका परिणाम सामने आया और आ रहा है। चैतरफा आर्थिक संकट, बेरोजगारी, किसानों और केन्द्र एवं राज्य कर्मचारियों की अनदेखी के बाद राफेल,सीबीआई और आरबीआई के प्रकरण ने केन्द्र की भाजपा सरकार और भारतीय जनता पार्टी को कठघरे में खड़ा कर दिया है। ऐसे में पाॅच राज्यों के चुनाव परिणाम आने वाली लोकसभा का सेमी फाइनल होगा।