पश्चिमी यूपी से चली भाजपा की हवा पड़ी थी सपा-बसपा को भारी
उत्तर प्रदेश में मतदान की बयार पश्चिम से पूरब की ओर चलेगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रथम और कुछ सीटों पर दूसरे चरण में क्रमशः 11 और 18 अप्रैल को मतदान होना है। 2014 के आम चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव का श्री गणेश भी इस क्षेत्र से हुआ था। तब पहले दो चरणों के मतदान के दौरान बीजेपी के पक्ष में ऐसी हवा जिसके बल प बीजेपी ने पूरे प्रदेश में अपनी धाक-धमक कायम कर ली थी। बात इस इलाके के सियासी मिजाज की कि जाए कभी यह कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। कांग्रेस के दिग्गज जाट नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह यहीं से आते थे। चौधरी चरण सिंह ने 1967 में जब कांग्रेस से अलग होकर भारतीय लोकदल (आज राष्ट्रीय लोकदल हो गया है) का गठन किया तो यहां के जाट ही नहीं अन्य तमाम वोटरों ने भी कांग्रेस से दूरी बना ली। पश्चिमी यूपी की नब्ज पर राष्ट्रीय लोकदल की अच्छी खासी पकड़ थी। रालोद जब कमजोर हुआ तो बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी ने यहां अपनी जड़े जमा लीं। मुस्लिम-दलित-जाट-राजपूत और अहीर बाहुल्य वेस्ट यूपी में पूर्व प्रधानमंत्री और जाट नेता चैधरी चरण सिंह ने अजगर (अहीर-जाट-गूजर राजपूत) का नारा देकर अपनी खूब सियासत चमकाई थी, लेकिन मुलायम सिंह द्वारा चौधरी चरण सिंह से अलग होकर समाजवादी पार्टी बनाने के बाद अहीर यानी यादव उनके साथ जुड़ गए। इसी के साथ ‘अजगर’ वाला नारा भी इतिहास के पन्नों में सिमट गया। अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में वर्ष 2013 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में छेड़छाड़ की एक छोटी सी घटना के विकराल रूप लेने के बाद फैली हिंसा में यहां के जाट-मुस्लिम वोटर एक दूसरे के धुर विरोधी हो गए। दंगे की आग में दलितों को भी काफी नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन तुष्टिकरण की सियासत के चलते समाजवादी पार्टी और बसपा का कोई भी नुमाइंदा यहां जाट और दलितों के आंसू पोंछने नहीं पहुंचा। अखिलेश को लगता था कि जाट का साथ देने पर मुस्लिम वोटर उनसे नाराज हो जाएगा, जिससे उनका वोटों का गणित बिगड़ सकता है। हालात यह थे कि सपा के बड़े नेता आजम खान के इशारे पर यहां जाट और दलितों को इंसाफ मिलना तो दूर उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। आजम के कहने पर दंगों के लिए जिम्मेदार मुस्लिमों को खुला छोड़ दिया गया। सपा के पदचिन्हों पर माया भी चलती दिखीं। उनकी भी नजर दलितों के साथ मुस्लिम वोटरों पर लगी हुई थी। दलित वोटरों को अपनी बपौती मानने वाली माया मुसलमानों को नाराज नहीं करना चाहती थीं। सपा-बसपा ने जरूर जाट और दलितों के आंसू नहीं पोंछे, लेकिन भाजपा नेता पूरी हिम्मत के साथ मैदान में जाट और दलितों के पक्ष में डटे रहे। यही वजह थी, दंगों के बाद यहां का सियासी मिजाज काफी तेजी से बदला, जिसका भाजपा ने पूरा फायदा उठाया। भाजपा ने 2014 के अम और 2017 के विधान सभा चुनाव में यहां से सपा-बसपा और कांग्रेस का सफाया कर दिया। यह सिलसिला बीते वर्ष कैराना उप-चुनाव में तब टूटा, जब सपा-बसपा के सहयोग से राष्ट्रीय लोकदल की संयुक्त प्रत्याशी बनी तबस्सुम ने कैराना सीट भाजपा से छीन ली। यह सीट भाजपा सांसद हुकुम सिंह की मौत के बाद खाली हुई थी। उप-चुनाव में यहां से सपा ने स्वयं प्रत्याशी उतारने की बजाए लोकदल प्रत्याशी का समर्थन किया। बसपा तो वैसे भी उप-चुनाव से दूर ही रहती है। सपा-बसपा के मैदान में न होने से टक्कर भाजपा और लोकदल के बीच आमने-सामने की हो गई, तो छोटे चौधरी के नाम से पहचान बनाते जा रहे चौधरी जयंत सिंह ने एक नया प्रयोग किया था। उन्होंने दादा चौधरी चरण सिंह के अजगर वाले नारे को बदल कर मजगर करके खूब सुर्खिंयां बटोरी और अपने प्रत्याशी के सिर जीत का सेहरा भी बांध दिया, लेकिन इससे भाजपा के हौसले पस्त नहीं पड़े। उसने कहना शुरू कर दिया उप-चुनाव में हमारे वोटर वोटिंग करने नहीं निकलते हैं। इस लिए लोकदल प्रत्याशी की जीत हो गई। यह सच भी था क्योंकि वोटिंग का प्रतिशत काफी कम था। इस बार भी भाजपा राष्ट्रवाद के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण करने के प्रयास में है, जिसके चलते सपा-बसपा के हाथ-पॉव फूले हुए हैं।