किसानों के लिए बेहतर संभावनाएं
हमारे देश में उपयोगिता के आधार पर देवता स्थापित किये गये हैं जैसे वायु देवता, जल देवता, अग्नि देवता आदि। इन सभी की उपयोगिता से हम अपने जीवन में इंकार नहीं कर सकते। इसी तरह किसान भी हमारे अन्न देवता माने जाते हैं। किसानों का महत्व शुरू से रहा है लेकिन भौतिक वादिता ने सबसे ज्यादा हमला कृषि पर ही किया है। बढ़ते शहरी करण और औद्योगीकरण ने खेती के आकार को कम कर दिया। हरे भरे खेतों पर ही कंक्रीर के जंगल नहीं खड़े हुए बल्कि जंगलों को भी काट दिया गया। इस प्रकार खेती-किसानी करने वाले बड़ी संख्या में मजदूर बन गये। कुछ लोग उद्योग धंधों में लग गये, कुछ ने नौकरी कर ली। इस सबके बावजूद भारत आज भी किसानों का देश कहा जाता है और देश की 70 फीसद से ज्यादा आबादी गांवों में ही रहती है। गांव विकास की दौड़ में पिछड़ गये तो खेती किसानी भी पिछड़ गयी। इसलिए जितनी भी कृषि योग्य जमीन है, उससे अधिक से अधिक उत्पादन करके किसानों को समृद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है। हिमाचल प्रदेश उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और तेलंगाना जैसे राज्यों में कृषि के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग किये जा रहे है। हिमाचल प्रदेश जैसे दुर्गम पहाड़ी राज्य में प्राकृतिक कृषि को बढ़ावा दिया जा रहा है तो तेलंगाना जैसे राज्य में किसानों को फसल उगाने से पहले सरकार एकमुश्त धनराशि दे रही है। मैदानी क्षेत्रों में मृदा परीक्षण और आधुनिक ढंग से खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे किसानों के सामने बेहतर संभावनाएं दिख रही हैं। इससे किसानों के ऋण माफ करने जैसी गलत परम्परा पर भी विराम लगेगा।
यहां पर सवाल यह उठता है कि प्रदेश के किसानों को तेलंगाना जैसी आर्थिक सहायता की आवश्यकता है या फिर ऐसे मार्गदर्शन की, जिससे किसान मांगने वाला न होकर स्वावलंबी, स्वाभिमानी और संपन्न बने।
भारतीय कृषि के प्राचीन गौरव को लौटाने व किसानों की आय को वर्ष 2022 तक दोगुना करने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने पिछले चार वर्षों में जो कदम उठाए हैं, उससे किसानों में आत्महत्या, शहरों की ओर पलायन जैसी घटनाओं में कमी तो आई है, परंतु अभी तक यह समस्या पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है। समय≤ पर विभिन्न राज्य सरकारों ने भी अनेक योजनाओं के माध्यम से किसानों की समस्याओं के निराकरण के प्रयास किए हैं। किसानों की आय बढ़ाने, निजी संस्थाओं व साहूकारों से ऋण मुक्ति व शहरों की ओर पलायन रोकने की दृष्टि से तेलंगाना सरकार ने भी किसानों के लिए एक योजना शुरू की है, जिसके तहत प्रत्येक किसान को हर वर्ष रबी और खरीफ की फसलों से पूर्व 8000 रुपए (दो किस्तों में) उपलब्ध करवाए जाएंगे। इस योजना का लाभ राज्य के 58 लाख किसानों को मिलने वाला है। अकूत खनिज संपदा और आर्थिक संसाधनों की बदौलत तेलंगाना राज्य इस योजना को सफलतापूर्वक कार्यान्वित भी कर लेगा, परंतु इस योजना से क्या किसान स्वावलंबी बन पाएगा? तेलंगाना राज्य द्वारा इस योजना के शुरू किए जाने से अन्य राज्यों
में भी इसी तरह की योजनाओं
के लिए दबाव बढ़ेगा। हिमाचल
प्रदेश के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो प्रदेश में लगभग 10 लाख किसान परिवार हैं।
अगर प्रदेश के प्रति किसान परिवार को 8000 रुपए की आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है, तो प्रदेश सरकार को लगभग 800 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ेंगे। पहले से ही 48502 करोड़ रुपए के ऋण के बोझ तले दबे हिमाचल की रीढ़ इस अतिरिक्त व्यय से टूट जाएगी। ऐसे में इस तरह की किसी योजना को प्रदेश सरकार लागू करे, यह निकट भविष्य में न तो संभव है और न ही प्रासंगिक है। वित्तीय संसाधनों में कमी के बावजूद हिमाचल प्रदेश ने अनेक अन्य योजनाओं के माध्यम से कृषि व बागबानी के क्षेत्र में देश के अग्रणी राज्यों में अपना स्थान बनाया है। पूर्व धूमल सरकार के दौरान पं. दीनदयाल किसान बागबान समृद्धि योजना, कृषि विविधता प्रोत्साहन योजना, पोलीहाउस के निर्माण पर 85 प्रतिशत उपदान व तीन वर्षों में 5 लाख 20 हजार ‘सायल हैल्थ कार्ड’ बनाने जैसी अनेक योजनाओं ने हिमाचल को कृषि क्षेत्र में प्रथम श्रेणी के राज्यों में खड़ा कर दिया था। अब महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि प्रदेश के किसानों को तेलंगाना जैसी आर्थिक सहायता की आवश्यकता है या फिर ऐसे मार्गदर्शन की, जिससे किसान मांगने वाला न होकर स्वावलंबी, स्वाभिमानी और संपन्न बने। वर्तमान सरकार को बने हुए मात्र 4 महीने ही हुए हैं, परंतु कृषि मंत्री डा. रामलाल मार्कंडेय के नेतृत्व में विभाग द्वारा उठाए गए कदमों ने प्रदेश में कृषि व कृषक के सुखद भविष्य का स्पष्ट संकेत दिया है। प्रदेश सरकार द्वारा लिए गए इन निर्णयों की समीक्षा की जाए, तो प्रदेश की कृषि नीति ‘जीरो बजट की प्राकृतिक खेती’ की ओर बढ़ती नजर आ रही है। कम लागत में पारंपरिक खेती से अधिक लाभ की यह नीति देश के अन्य राज्यों के लिए भी मार्गदर्शन का काम करेगी और आने वाले समय में किसानों को स्वावलंबी और समृद्ध बनाने के साथ-साथ कृषि क्षेत्र में देश के पुराने वैभव को लौटाने में भी सक्षम बनेगी। ‘जीरो बजट की प्राकृतिक खेती’ के प्रणेता प्रदेश के राज्यपाल डा. देवव्रत आचार्य ने पिछले तीन वर्षों के कार्यकाल के दौरान प्रदेश के किसानों और बागबानों को नई राह दिखाई है। प्राकृतिक खेती के प्रति जागरूकता, उपयोगिता, लाभ और कार्यान्वयन की दृष्टि से राज्यपाल महोदय ने न केवल पूरे प्रदेश का दौरा किया, बल्कि सरकारी व गैर सरकारी संस्थाओं के माध्यम से शिविरों का आयोजन करके प्रदेश के किसानों को जागरूक भी किया। सत्ता परिवर्तन के पश्चात प्रदेश सरकार के मंत्रियों को हरियाणा स्थित अपने कृषि केंद्र में प्राकृतिक खेती के सभी पहलुओं से अवगत करवाया। राज्यपाल महोदय की इस कड़ी मेहनत का परिणाम है कि ‘प्राकृतिक खेती-खुशहाल किसान’ योजना के तहत प्रदेश सरकार ने प्रथम चरण में 25 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है।
इस योजना के प्रथम चरण में 40 हजार किसानों को दायरे में लाया जाएगा और 120 क्लस्टर में नियुक्त ‘कृषक मित्र’ किसानों का मार्गदर्शन करेंगे। मैदानों से लेकर शुष्क शीतोष्ण पहाड़ियों के बीच बसे हिमाचल में कृषि व बागबानी के क्षेत्र में असीम संभावनाएं मौजूद हैं। 37 तरह के फलों की खेती, गेहूं, धान व मक्के के साथ-साथ जैविक खेती के माध्यम से तैयार पारंपरिक अनाज जैसे जौ, कोदरा, बाथू, चलाई, राजमाह इत्यादि के लिए देश-विदेश में एक बड़ा बाजार उपलब्ध है। जरूरत सिर्फ मार्गदर्शन और सही विपणन नीति की है और निस्संदेह प्रदेश सरकार इस दिशा में कार्यशील है। इस तरह के कार्य अन्य राज्यों में कृषि सुधार के लिए किये जाने चाहिए।