पद्मश्री पुरस्कार उत्तराखंड की जनता को समर्पित- बसंती बिष्ट
राज्यमुख्यालय पर मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार व राज्य आन्दोलनकारी नागेन्द्र प्रसाद रतूड़ी जी की बसंती बिष्ट जी से खास बातचीत-
उत्तराखंड में देवाराधना में अनेक गीत गाए गये. जहां संस्कृत भाषा में अनेक ग्रंथों की रचना हुई, वहीं गढवाली-कुमाऊंनी व जौनसारी भाषा में भी देव आराधना के गीत गाए जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि जब इन गीतों को वाद्ययंत्रों के साथ गाया जाता है तो किसी व्यक्ति पर देवी व देवता अवतरित हो जाते है जो भूत-भविष्य बताते हैं. देवों को अवतरित करने की यह विधा जागर कहलाती है.
जागर ढोल रौंटी, हुडुक या डौंर थाली के साथ गाया जाता है. वातावरण को पावन बनाने के लिए स्थान को लीपा जाता है. जागर के समय घी को लाल अंगारों पर डाला जाता है, जिससे वातावरण शुद्ध व पवित्र लगता है. साथ ही गंगाजल को गाय के शद्ध दूध के साथ मिला कर उपस्थित सभी लोगों पर छिड़का जाता है. जागर की इस विधा को गाने वाले लोग जागरी, धामी आदि कहे जाते हैं जिसे देवता का गुरू भी माना जाता है. सफल जागरी वह होता है जो देवता को नचा सके, उससे उसके मन की बात कहलवा सके. प्रारम्भ में जागर की यह विधा पुरुषों द्वारा ही की जाती थी। समय के साथ साथ महिलाओं ने भी इस विधा में सफलता पाई है, जिनमें से मुख्य है उत्तराखंड की पद्मश्री सम्मानित श्रीमती बसंती देवी बिष्ट।
वर्ष 2016 का पद्म पुरस्कार प्राप्त श्रीमती बसंती देवी का जन्म चमोली जनपद के देवाल विकास खंड के ल्वाणी गांव के स्व. आलमसिंह बागड़ी के घर 14 जनवरी 1954 को हुआ. उनकी माता का नाम बिरमा देवी था. इन्होंने बचपन में मां व अन्य महिलाओं को गीत, जागर गाते सुना, जो इनके बाल मन पर अंकित होते गये.
इस वर्ष 26 जनवरी, 2017 को उत्तराखंड के राजभवन में आयोजित स्वाल्पाहार में उनसे भेंट हुई. सादगी की प्रतिमूर्ति व निराभिमान. तब उनसे केवल परिचय हुआ. इसी परिचय का आधार ले कर उनसे उनके मोबाईल पर बात की तो उनके बेटे प्रद्युम्न के फोन पर बात हुई. उन्होंने उनका नंबर दिया.उनसे बात करते ही परिचय दिया तो वे बड़ी सरलता से बात करने को तैयार हो गयीं। श्रीमती बसंती देवी बिष्ट से ख़ासबातचीत –
सवाल – आपका जन्म कब और कहां हुआ?
बसंती देवी-मेरा जन्म ल्वाणी गांव के स्व. आलमसिंह बागड़ी के घर माता बिरमा देवी की कोख से हुआ.
सवाल–आप की पढाई लिखाई.
बसंती देवी-सामान्य है हिन्दी, गढवाली व कुमाऊनी जानती हूं.
सवाल– आपके अंदर जागर गाने की रुचि कैसे जगी?
बसंती देवी– पहाड़ मे जागर व गीत जन मानस में घुले हुए हैं. मैं बचपन से मां व महिलाएं पहाड़ों की रीति रिवाजों के अनुसार पर्वों के अवसर पर हमेशा गीत,जागर गाते देखती रही जो बाल मन पर अंकित होता गया.
सवाल-आपका विवाह कब हुआ?और ससुराल कहां है आपकी?
बसंती देवी– मेरा विवाह पंद्रहवें वर्ष 14 जनवरी 1968 में मकर संक्राति के दिन मेरे मायके ल्वाणी गांव के ही फौजी रणजीत सिंह बिष्ट से हुई है. मेरा मायका और ससुराल एक ही गांव में हैं.
सवाल–आपने जागर गायन बहुत बड़ी आयु में प्रारंभ किया?
बसंती देवी-शादी के बाद मां ने गीत जागर गाने से सख्ती से मना कर दिया था, परन्तु आज जिस जागर विधा से मुझे पहचान मिली है उसकी प्रेरक निश्चित रूप से मां ही थी और आज जो पुरस्कार मिला वह भी उनके ही आशीर्वाद से मिला. मां की ससुराल में न गाने की आज्ञा थी जिसका पालन वह बखूबी कर रही थी। मै केवल महिलाओं के साथ गाती थी सार्वजनिक रूप से नहीं.
सवाल– आपकी संतान?
बसंती देवी– मेरे तीन बच्चे हैं. दो बेटे एक बेटी.
सवाल –लगता है गृहणी के रूप में शुरू में आप बहुत व्यस्त रहीं, जिससे गायन की ओर ध्यान न दे सकीं?
बसंती देवी– जी हां. पति फौजी थे, सीमा पर। फिर ससुराल का अनुशासन, मां से किया वादा. इसलिए गायन से सार्वजनिक रूप से दूर रही. समय बिताने के लिए घर गृहस्थी के साथ कपड़ा सिलने का कार्य सीखा. पति के फौजी होने से बच्चों व परिवार की देख रेख का भार मुझ पर आ गया था. अपने परिवार को संभालने के लिए मैंने अपने सारे शौक छोड़ दिए थे और विशुद्ध गृहणी बन गयी. जब स्वेटर बुनने की मशीन आई तो उसे सीखा. दस साल तक बुनाई की. स्वेटर बिक्री के लिए भी बनाती थी.
सवाल–आप को गायन की सुध कैसे आयी?
बसंती देवी– इसका श्रेय जाता है मेरे पति को. मैं अपने पति के साथ पंजाब गयी. वे उस समय वहां पोस्टिंग में थे. पति के प्रोत्साहित करने से मैंने प्राचीन कला केंद्र चण्डीगढ में शास्त्रीय संगीत सीखा. यहीं मुझे पता लगा कि सामान्य गायन और शास्त्रीय रूप से गानें में क्या अंतर है. इससे मैंने गायन की बारीकियां सीखी और मेरे गायन में निखार आया इससे मेरा आत्मविश्वास जागा, मेरे सुर ताल में एकात्म्य हुआ.
सवाल- जब आपने सार्वजनिक रूप से जागर गायन प्रारंभ किया तो आप को कितना संघर्ष करना पड़ा?
बसंती देवी– प्रारंभ में मुझे जो मंच मिला कह कवि सम्मेलन था पुस्तक विमोचन कार्यक्रम थे जहां मैं अपनी प्रस्तुति देती थी. मेरी प्रस्तुति को पत्रकारों ने सराहा. मैं आज जिस मुकाम पर वह पहुंची हूं इसका श्रेय साहित्यकारों व पत्रकारों को है. मेरे पति व परिवार के बाद इन्हीं लोगों ने सबसे पहले मौका दिया. काव्यगोष्ठियों की शुरुआत मेरे जागरों से होने लगी. पत्रकारों ने पूरा स्थान दिया. जिससे मेरी पहचान बनी.
पहाड़ों के लोक कलाकारों को पहचान देने में आकाशवाणी नजीबाबाद की भूमिका बहुत अहम् रही. उसने हम जैसे न जाने कितने कलाकारों को प्रोत्साहन दिया. सन् 1996 में आकाशवाणी नजीबाबाद से गायन का मौका मिला तो मैंनें पीछे मुड़कर नहीं देखा. फिर दूरदर्शन ने भी मुझे मौका दिया. संस्कृति विभाग के अपने कार्यक्रमों में मुझे पांच मिनट का समय दिया जाता रहा है.
इसके अतिरिक्त विरासत संस्था ने इस जागर विधा को आगे बढाने और विदेशों तक पहुंचाने में अहम् भूमिका निभाई. मैंने देश विदेश में अपनी पारंपरिक वेषभूषा में ही प्रस्तुति दी हैं। मैं उन सभी सहयोग करने वाले सभी लोगों, संस्थाओं और जनता का हार्दिक आभार प्रकट करती हूं. वे मेरी मदद न करते तो आज मैं शायद यहां तक न पहुची होती?
सवाल–जागर गायन में आपको कैसी अनभूति होती है?
बसंती देवी-जागर गायन मेरा धंधा नहीं श्रद्धा है. यह देव आराधना है. मैं जब जागर गायन करती हूं तो अंदर से आती हूं उस समय मेरे मुख से जो स्वर निकलते हैं वह मेरी आत्मा से निकलते हैं और उन्ही देवों का आशीष मुझ पर फला है.
सवाल– अपने पति के बारे में बताइए?
बसंती देवी-जी मेरे पति बहुत सरल मन के सीधे सच्चे आदमी हैं. वे फौज से रिटायर्ड सैनिक हैं और मुझे एक सैनिक की पत्नी होने में गर्व है. फौज के बाद मेरे पति ने एल.आई.सी में कार्य किया. वहां से सेवानिवृति के बाद मैंने उनके हाथ में हुड़की थमा दी और अब वे मेरे साथ हुड़की बजाते हैं (यह कह कर वह हंसने लगी.)
सवाल –आपका दांपत्य जीवन हमेशा सुखी रहे. आपको पद्मश्री पहले ही आवेदन मे मिल गयी थी?
बसंती देवी -मुझे यह पुरस्कार सातवीं बार आवेदन करने पर मिला जब ऑनलाईन आवेदन मांगे गये. इससे पूर्व छ: बार के आवेदन पत्र कहां गये या उन पर क्या कार्यवाही हुई मुझे पता नहीं. मैं चयन समिति का आभार प्रकट करती हूं जिसने निष्पक्षता से चयन किया. मेरा यह पुरस्कार उत्तराखंड की जनता को समर्पित है.
सवाल–जागर के संबंध में और कुछ?
बसंती देवी-पिछले दिनों भारतीय स्तर पर आकाशवाणी अल्मोड़ा में हुई प्रतियोगिता में जागर को शास्त्रीय श्रेणी में स्वीकार कर लिया गया है. जो कि मेरी बहुत बड़ी साधना थी.
सवाल–आप केवल भगवती नंदा के ही जागर लगाती हैं या और देवताओं के भी?
बसंती देवी – मैंने केवल जागर ही नहीं गाये बल्कि मां नंदा पर एक शोधात्मक पुस्तक भी लिखी है. नंदा के अतिरिक्त मैं नाग नरसिंह, गोलू, रमोला, भैरों आदि देवताओं के जागर भी गाती हूं. जागर गाने में मुझे आंतरिक शांति मिलती है. मैं जागर को श्रद्धा का विषय मानती हूं व्यवसाय का नहीं. इसलिए अंदर से गाती हूं. बाकी का काम देवता खुद कर देता है.
सवाल-चुनाव का मौसम है, क्या आप किसी राजनैतिक पार्टी की कार्यकर्ता हैं?
बसंती देवी- जी नहीं मैं किसी राजनैतिक पार्टी में नहीं हूं.
ईश्वर करे आपको उत्तरोत्तर पद्म पुरस्कार मिलते रहें
बसंती देवी-धन्यवाद. पर भाई यही बहुत है.
दूरस्थ चमोली की एक साधारण गृहणी से पद्मपुरस्कार तक पहुचने का यह कार्य श्रीमती बसंती देवी बिष्ट जी की जिजिविषा का ही तो फल है. उन्हें अन्य पद्मपुरस्कार मिलें, बधाई व शुभ कामनाये .