‘रानीखेत वायरस’ का दाग धोने में उलझा तंत्र

रानीखेत : ब्रितानी हुकूमत से गुलामी के दौर में मिला ‘रानीखेत वायरस’ का दाग कैसे धुलेगा, इस पर केंद्र व राज्य के नीतिनियंता खुद ही उहापोह में आ गए हैं। उत्तराखंड मूल के एक जानकार की आपत्ति व ‘दैनिक जागरण’ में मुद्दा जोरशोर से उठने के बाद केंद्र हरकत में आया।

मगर सूत्रों की मानें तो गेंद राज्य सरकार के पाले में सरका दी गई। इधर असमंजस में पड़े निदेशक (पशुपालन) ने अनुसचिव को कुमाऊं में पहाड़ों की रानी रानीखेत के नाम पर रखे गए घातक वायरस का नाम बदलने की संस्तुति तो कर दी पर साथ में यह भी जोड़ा है कि यह मुद्दा पशुपालन विभाग के अधीन नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल और वैज्ञानिक पद्धति से जुड़ा मसला है।

दरअसल, गुलाम भारत में वर्ष 1939-40 के दौरान मौजूदा पर्यटक नगरी रानीखेत में महामारी फैली थी। घरेलू पक्षियों के दुश्मन पैरामाइक्सो विषाणु के संक्रमण से सैकड़ों मुर्गियां मारी गई। ब्रितानी विशेषज्ञों ने इसे ‘रानीखेत वायरस’ नाम दे दिया था। आजादी के बाद से अब तक घातक बीमारी को देश दुनिया में रानीखेत नाम से ही जाना जाता है।  उधर दिल्लीवासी उत्तराखंड मूल के जागरूक प्रकृति प्रेमी के केंद्र व राज्य सरकार के साथ विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) पर पात्राचार के जरिये दबाव बनाया गया।

13 अप्रैल के अंक में ‘दैनिक जागरण’ ने भी पर्यटक नगरी की छवि से जुड़े मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। केंद्रीय मंत्रालय हरकत में आया। पर मजबूरी भी बयां कर दी। कृषि मंत्रालय के पशुपालन, डेयरी व मत्स्य विभाग के सहाय आयुक्त डॉ.एचआर खन्ना ने बीती 10 अगस्त को स्पष्ट कर दिया कि बीमारी का नामकरण वैज्ञानिक पद्धति व अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल के अंतर्गत आता है।

लिहाजा यह विषय विभाग की परिधि में नहीं आता। इस पर असमंजस में पड़े संयुक्त निदेशक पशुपालन (उत्तराखंड) डॉ. एसएस बिष्ट ने संबंधित विभागीय मंत्री व अनुसचिव को पत्र भेज कहा है कि जनभावनाओं के अनुरूप बीमारी के नाम में बदलाव संभव हो तो इसकी संस्तुति की जाती है। बहरहाल, राज्य सरकार गुलाम भारत में रानीखेत को मिला कलंक मिटाने को केंद्र के जरिये अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दबाव बनाएगी या नहीं, यह वक्त ही बताएगा।

शातिर अंग्रेजों ने ऐसे दिया भारतीय नाम 

रानीखेत से पूर्व 1938 में ग्रेट ब्रिटेन के न्यू कैसल शहर में विषाणु ने हमला बोला था। तब वहां महामारी फैली थी। ब्रितानी विशेषज्ञों ने पैरामाइक्सो विषाणु को न्यू कैसल नाम दिया। एक वर्ष बाद यही विषाणु भारत पहुंचा। रानीखेत में 1939-40 में कहर बरपाने पर ब्रिटिश शोधकर्ताओं ने न्यू कैसल से इस विषाणु को ‘रानीखेत वायरस’ नाम दे दिया। वर्ष 2012 में ग्रेटर नोएडा के इलाकों में पैरामाइक्सो का हमला हुआ। तब उत्तराखंड मूल के एक युवा प्रकृति प्रेमी ने खूबसूरत रानीखेत की छवि का हवाला देते हुए वायरस का नाम बदलने की पुरजोर वकालत की। तभी से मामला सुर्खियों में है।

ऐसे जकड़ता है यह घातक विषाणु 

= वायरस मुर्गियों का दिमाग प्रभावित कर देता है। शारीरिक संतुलन बिगड़ जाता है। गर्दन लटकने लगती है।

= छीकें व खांसी बढ़ जाती है।

= श्वासनली के प्रभावित होने से दम घुटने लगता है। संक्रमित पक्षी मुंह खोल कर सांस लेते हैं।

= कभी कभार लकवा भी मार जाता है।

= प्रभावित मुर्गियों का आकाश की ओर टकटकी लगाए रखना

= पाचन तंत्र प्रभावित, लिवर खराब, प्रजनन क्षमता खत्म, अंडा देना भी बंद देती है।

‘रानीखेत वायरस’ पर एक नजर 

मुर्गी व बत्तख पालकों को घाटा देने वाला बेहद घातक संक्रामक रोग का जनक है एवियाना पैरामाइक्सो वायरस टाइप-वन (एपीएमवी-वन)। संक्रमित मुर्गियों व अन्य पक्षियों के संपर्क में आने, मल, दूषित वायु, दाना पानी, उपकरण, वैक्सीन, कपड़े आदि के स्पर्श से यह रोग फैलता है। कुछ ही दिनों में हालात बेकाबू।

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